प्रार्थना की शक्ति से आलोकित जीवन -लाजपत राय सभरवाल-
प्रार्थना की शक्ति से आलोकित जीवन -लाजपत राय सभरवाल-
योगीराज श्रीकृष्ण ने गीता के बारहवें अध्याय में कहा था-जो पुरुष सब कालों में द्वेषभाव से रहित रहता है। सबसे मित्रता और दया का भाव रखता है। अहंकार का त्याग कर, सुख-दुख हर स्थिति में समान भाव रखता है। क्षमा भाव के साथ और निरन्तर योग का अभ्यास करता है। सन्तुष्ट मन से संयम रखता हुआ,-ढ़ निश्चय से परमात्मा को मन और बुद्धि से अर्पण करता है। वह भक्त मुझे अति प्रिय है। जब मनुष्य इन गुणों के साथ उस ईश्वर के आगे प्रार्थना करता है तो फिर किसी और के सामने हाथ फैलाने नहीं पड़ते, उपासक का अभिमान नष्ट हो जाता है। मन द्रवित होने लगता है,-ष्टि बदल जाती है। जब हृदय की ऐसी भावना हो जाती है, ईश्वर प्रार्थी की प्रार्थना को सुनता है।
संसार के सभी धर्मों में एक बात समान है, वह है प्रार्थना। प्रार्थना किसी भी मनुष्य के जीवन के लिए एक बड़ी साधना है। जीवन में हर प्रकार की कठिनाइयां व समस्याएं आती हैं। जब हमें किसी दिशा में मार्ग नहीं सूझता तो ईश्वर से प्रार्थना करने पर मार्गदर्शन होने लगता है। जब भी कभी किसी विलक्षण समस्या का निबटारा नहीं मिल पाता तो सच्चे मन से प्रार्थना करने पर समाधान प्राप्त होने लगता है। गांधी, ईसा, महात्मा बुद्ध, ऋषि दयानन्द, मुहम्मद व अन्य सभी श्रेष्ठ मनुष्यों ने प्रार्थना की शक्ति से जीवन की कई कठिन परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर ली थी। गांधी जी का मानना था कि जैसे शरीर के लिए आहार की परम आवश्यकता होती है, उसी प्रकार ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना आत्मा के लिए आवश्यक आहार है।
हमारे महर्षियों, महात्माओं का मानना है कि सच्ची प्रार्थना वह है जब हम अपने इष्टदेव के आगे सहज, सरल और अपने आप से निकले हुए उद्गार प्रकट करते हैं। प्रार्थी अपनी सीधी-सादी भाषा में अपने हृदय के उद्गार प्रकट करता है। ईश्वर भक्त अपनी प्रार्थना के द्वारा भगवान से अपना सम्बन्ध जोड़कर उससे बातें करने लगता है और अपने मन की बात को सीधा परमात्मा से प्रकट करता है। हम दुख में ईश्वर को याद करते हैं परन्तु यदि हम सब परिस्थितियों में अर्थात दुरूख और सुख में भी स्मरण करें तो शायद दुरूख की स्थिति आए ही नहीं। प्रार्थना का कोई विशेष अवसर, स्थान या समय निश्चित नहीं है। सुबह से रात तक, जीवन के प्रत्येक अवसर, स्थान और काल में प्रभु से प्रार्थना या बातचीत बन्द नहीं होती। आज के वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जब शरीर के साथ यह मन और आत्मा भी निरोग होने का प्रयास करता है तो हमारे शरीर पर अद्भुत और शीघ्र असर पड़ता है। जीवन का प्रत्येक क्षण प्रार्थनामय हो तो सुख दूर जा ही नहीं सकता।
ईश्वर से प्रार्थना करने में मन की सच्चाई हो तो हमें सारे शत्रु भी अपने दिखाई देने लगते हैं। सब लोग बन्धु और मित्र समान हो जाते हैं। प्रार्थना से उपजी उदार भावना विश्व मैत्री की भावना बन जाती है। ऐसा माना जाता है कि रामकृष्ण परमहंस एकाग्र मन से प्रार्थना कर भावविभोर हो जाते थे। यह अलौकिक अवस्था है जब भक्त को दूसरों में गुण तथा अपने आप में दोष दिखाई देने लगते हैं। प्रार्थना में वह शक्ति है कि हमारे दोष की
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वृत्ति को बदल देती है। प्रार्थी को अपने गुण, कर्म और दोष अधिक अनुभव होने लगते हैं, जिससे अभिमान नहीं होता। रूप, ऐश्वर्य, सन्तान, पद-प्रतिष्ठा, सुख, विद्या सब उस ईश्वर के दिए हुए हैं। जब हम त्यागभाव से इनका उपयोग करते हैं तो अभिमान भी नहीं होता क्योंकि हमारे भाव सात्विक हो जाते हैं। हम कितने ही गुणी क्यों न हों किन्तु मन में अभिमान के पैदा होते ही हमारे सभी गुण ढक जाते हैं।
प्रार्थना का एक और लाभ हैकृपरमात्मा की प्रसन्नता और कृपा। जो कुछ है वह ईश्वर का है और उसी को समर्पित है। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वह जो कुछ करता है, खाता है, होम-हवन करता है, दान देता है, तप करता है, वह सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर दे। जब प्रभु की प्रसन्नता मिल गई, तब फिर प्राप्त करने के लिए रह ही क्या जाता है? बहुत से संतों और भक्तों ने जीवन में प्रार्थना से ईश्वर प्राप्ति की थी। सच्चे हृदय और मन से की गई प्रार्थना उच्चकोटि की होती है। प्रार्थना सगुण या निर्गुण हो सकती है। सगुण प्रार्थना में ईश्वर से शुभ गुणों के ग्रहण की इच्छा प्रकट करते हैं और निर्गुण प्रार्थना में अपने दोष छुड़ाने के लिए परमात्मा से सहारा मांगते हैं। प्रार्थना जब एकान्तभाव और भावपूर्ण हृदय से की जाती है तो सफलता मिलती है। ईश्वर किसी गुप्त या दूरस्थ आकाश में नहीं रहता। हमारा शरीर ही ईश्वर का मन्दिर है। मन की बात तो केवल ईश्वर ही सुनता है, कोई दूसरा नहीं। श्रेष्ठ पुरुष बताते हैं कि भक्त इच्छुक, निरूस्वार्थ और विनम्र होना चाहिए।
यदि प्रार्थना हृदय से निकली हो तो उसका प्रभाव भी आश्चर्यजनक होता है। बाबर का पुत्र हुमायूं इतना बीमार पड़ गया कि बड़े-बड़े वैद्य और हकीमों ने बादशाह को कह दिया कि अब दवा नहीं दुआ ही सफल हो सकती है। तब बाबर ने उसके चारों ओर चक्कर लगाकर और भाव भरे दिल से खुदा से कहा-या खुदा, पुत्र हुमायूं को ठीक कर दो, चाहे इसके बदले मेरे प्राण ले लो। भावपूर्ण हृदय और सच्चे मन से निकली हुई दुआ से हुमायूं धीरे-धीरे ठीक हो गया और बाबर अस्वस्थ हो गया। यह भावपूर्ण प्रार्थना का प्रभाव था। इसमें मन, बुद्धि, चित्त सब एक हो जाते हैं।
सच्चे मन से ईश्वर की भक्ति करने वाला कभी चिन्तित, हताश, निराश, दुखी, असमर्थ नहीं होता, वह अपने व्यवहार में किसी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र का कोई अहित नहीं करता। माला, यज्ञोपवीत, जटाजूट होने से, मन्दिर-मस्जिद-गिरजाघर जाने मात्र से कोई भक्त नहीं हो जाता या पूरी भक्ति नहीं हो जाती। सच्चा भक्त वही है जो तपस्वी, सामर्थ्यवान, निष्काम सेवक, निर्भीक और प्रसन्न होता है।
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