सांसदों का सामूहिक सत्र के लिए निलंबन, जनमत का अपमान?

सांसदों का सामूहिक सत्र के लिए निलंबन, जनमत का अपमान?

-सनत कुमार जैन-

145 से अधिक सांसदों का 3 दिन के अंदर निलंबन पूरे सत्र अवधि के लिए किया गया। निलंबन को जनमत का अपमान माना जाना चाहिए। करोडों मतदाताओं ने अपने प्रतिनिधि का चुनाव किया। उन प्रतिनिधियों को संसद की कार्रवाई से बेदखल करना, कहीं से भी न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है। सांसद तख्ती लेकर सरकार से इस बात की मांग कर रहे थे, कि संसद में जो हमला हुआ है। उसमें गृहमंत्री सदन के अंदर अपना बयान दें। सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है, कि बहुमत के आधार पर संसदीय समिति ने तख्ती पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय हाल ही में लिया है। संसद में सत्ता पक्ष के पास बहुमत है। कोई भी निर्णय लिया जाएगा, वह बहुमत के आधार पर ही होगा। भारतीय जनता पार्टी पिछले 30 वर्षों में जिस तरीके से संसद के अंदर प्रदर्शन करती रही है। जिस विरोध और प्रदर्शन के बल पर वह केंद्र की सत्ता में काबिज हुई है। अब बहुमत के आधार पर उस रास्ते को बन्द किया जा रहा है। शायद सरकार की यही मनसा होगी, कि जिस तरह से उसे समय के विपक्ष ने सरकार तक पहुंचने का जो मार्ग बनाया था। उस मार्ग को बन्द कर दिया जाए। सदन के अंदर विपक्षी सांसदों को बोलने नहीं दिया जाता है। जब वह बोलते हैं, तो वहां कैमरा नहीं होता है। विपक्षी सांसदों के माइक बंद कर दिए जाते हैं। ऐसी स्थिति में विपक्षी सांसदों को अपना विरोध प्रदर्शन करने के लिए कुछ ना कुछ रास्ता तो अपनाना पड़ेगा।
संसद में सरकार द्वारा बहुत महत्वपूर्ण बिल पेश किए जाने थे। विपक्षी संसद सदस्य आसंदी की बात को नहीं मान रहे हैं। ऐसी स्थिति में दोषी सांसदों को उस दिन की कार्रवाई से निलंबित किया जा सकता था। आसंदी सभी राजनीतिक दलों के सांसदों का पालक होता है। विपक्ष के सांसदों की यदि मांग थी, तो उन्हें सरकार और विपक्ष के बीच समन्वय बनाने की पहल करनी थी। जो उन्होंने कई दिनों तक नहीं की। निलंबित सांसद जो मांग सदन के अंदर कर रहे थे। वह कहीं से भी अनुचित नहीं कहीं जा सकती है। जब मीडिया के सामने सदन के बाहर, केंद्रीय गृहमंत्री और प्रधानमंत्री लगातार बयान दे रहे हों। मीडिया में तरह-तरह से खबरें छप रही हों, सँसद चल रही है, संसद के अंदर बयान न देकर बाहर बयान देना यह भी संसद की परंपराओं का अपमान था। लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति ने सरकार से इस मामले में कोई पहल नहीं की। यहां पर मान और अपमान की बात भी नहीं हो रही थी। सरकार को बिल बिना बहस के पास शायद पास कराने थे। जिसके लिए विपक्ष को जानबूझकर उत्तेजित किया गया। संसद के अंदर उनके सामूहिक विरोध को आधार बनाकर उनका निलंबन किया गया। उसके बाद सत्ता पक्ष ने सारे बिलों को बिना किसी चर्चा के संसद से पास कर लिया। जो 145 से अधिक सांसद निलंबित किए गए हैं। निलंवित सांसद करीब 34 करोड लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सांसद भी संवैधानिक शक्तियों के साथ सदन के अंदर आते हैं। जिस तरह से, विशेष रूप से राज्यसभा में आसन्दी के सभापति का सांसदों के साथ जो व्यवहार होता है। वह देखने और सुनने में बड़ा अपमानजनक लगता है। स्कूल और कॉलेज के टीचर भी अपने छात्रों के साथ इस तरह का व्यवहार नहीं कर सकते हैं। जो सदन के अंदर सभापति द्वारा किया जा रहा था। विपक्ष को जिस तरह से नजर अंदाज करते हुए पिछले कई दिनों से संसद की कार्रवाई संचालित हो रही थी। उसके बाद स्वाभाविक था, कि विपक्ष अपनी जायज मांग को नहीं माने जाने पर नाराज होकर विरोध दर्ज कराये। आसंदी ने भी इस गतिरोध को तोड़ने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। संसदीय कार्य मंत्री द्वारा भी ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया, जो सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच में समन्वय बनाकर संसद की कार्रवाई को निर्वाध रूप से चलाने में मदद करे। सदन में जो बिल पेश किये जाने थे। उस पर सभी पक्षों की राय ली जाए, शायद सरकार यह नही चाहती थी। इसी कारण सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच में यह सारा बवाल मचा। यहां आसन्दी की भी जिम्मेदारी थी, कि यदि बिल में चर्चा नहीं होती है। तो उन्हें पास नहीं किया जाना चाहिए था। पिछले कई वर्षों से यह एक परंपरा शुरू हो गई है, हो-हल्ले के बीच में बिना चर्चा के बिल पास कराए जा रहे हैं। वह भी संसदीय परंपरा और संविधान का सबसे बड़ा अपमान है. करोड़ों लोगों के ऊपर जो कानून लागू किए जाएंगे। यदि सदन में उसे पर चर्चा भी नहीं होगी, तो उसे कैसे जायज ठहराया जा सकता है। सरकार, लोकसभा की आसंदी और राज्यसभा की आसन्दी को भी इस पर विचार करना चाहिए। पूरे संसद सत्र की अवधि के लिए सदस्यों को निलंबित कर देना दुर्भाग्यपूर्ण है। हाल ही में इस तरह की घटनाएं संसद के अंदर बड़ी तेजी के साथ बढ़ रही हैं, जो चिंता का कारण है।

दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट

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