गुरु पूर्णिमा (10 जुलाई) पर विशेष: गुरु-शिष्य पवित्र परम्परा का महामहोत्सव है गुरु पूर्णिमा….
गुरु पूर्णिमा (10 जुलाई) पर विशेष: गुरु-शिष्य पवित्र परम्परा का महामहोत्सव है गुरु पूर्णिमा….
-विनोद कुमार सिंह-

भारत भुमि में अनेकों अवतारों, ऋषि-मुनियों, देवों, संत-साधु फकीरों व सच्चे साम्थर्य गुरुओं की पहली पंसद रही है। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण विभिन्न युगों में स्वयं भगवान विभिन्न अवतारों के रूप में ना अवतरित हो कर मानव का कल्याण किया है। भारत की पवित्र भुमि सैदव ऋषि मुनियों, संतों साधुओं, महापुरुषों व विभिन्न अवतारों में ना केवल अवतरित हुए बल्कि उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को साधना व तपों स्थली बनाकर आध्यात्म का अनोखी अलख जगाई है। भारत भुमि में अनेकों अवतारों, ऋषि-मुनियों, देवों, संत-साधु फकीरों व सच्चे साम्थर्य गुरुओं की पहली पंसद रही है। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण विभिन्न युगों में स्वयं भगवान विभिन्नअवतारों के रूप में ना अवतरित हो कर मानव का कल्याण किया है। हमारे यहाँ गुरु-शिष्य की परम्परा अति प्राचीन है। जिसका वर्णन हमारे वेद, पुराण व शास्त्रों में उल्लेख है। इसी श्रंखला में जब मानव त्रितापो से त्रस्त है, वह अपने उपर माया के आवरण व अज्ञानता के अंधकार में भटक रहा है। स्वयं मै भी इस त्राण से तड़प रहा था तभी मुझे एक परिचित के माध्यम से अन्तराष्ट्रीय इस्सयोग समाज के संस्थापक – महात्मा सुशील कुमार व माँ विजया से ना केवल सम्पर्क हुई बल्कि उन्होंने मुझे शक्तिपात दीक्षा देकर मुझे अनुग्रहित है। यह घटना मेरे जीवन में 25 बर्ष पूर्व सन् 2000 की है। मेरे जीवन में आमूल परिवर्तन हुआ। तभी से अपने सद्गुरू – सङ्गुरुदेव माँ के सान्धिय में हुईं। इस वर्ष 10 जुलाई को उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा स्थित- द गौर्स सरोवर प्रेमियर – गौर सिटी जीएच-01, सेक्टर 04, ग्रेटर नोएडा वेस्ट रोड, ग्रेटर नोएडा, यूपी में अन्तराष्ट्रीय इसस्योग समाज का गुरुपूर्णिमा महोत्सव का भव व दिव्य आयोजन किया गया है। दिल्ली व एन सी आर के इस्सयोगी इस आयोजन के सफल आयोजन के लिए सद्गुरू देव – माँ की दिव्य उपस्थित हेतू अपने पलक – पावड़े विछायें हुए दिन रात मेहनत कर रहें है। इस अवशर पर भारत के विभिन्न राज्यो के अलावें सात समुंदर पार से भी बड़ी इस्सयोगी गुरु पूर्णिमा मनाने आ रहे है। ऐसे में मेरी लेखनी भी गुरु – गुरुपूर्णिमा के संदर्भ में आप सब से चर्चा कर रहा है। जैसे कि हमारी संस्कृति में गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। संत कबीर कहते है -“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥‘गुरु’ शब्द का अर्थ होता है ‘अंधकार (अज्ञान) को दूर कर प्रकाश (ज्ञान) की ओर ले जाने वाला’। गुरु वह होता है जो शिष्य के जीवन को दिशा देता है, उसके भीतर स्थित आत्मा को जागृत करता है और उसे आत्मबोध की ओर ले जाता है!“गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥”यह श्लोक गुरु के महत्व और उनके द्वारा दिए गए ज्ञान के प्रति आभार व्यक्त करता है, जो हमें अज्ञान के अंधकार से निकाल कर सत्य का प्रकाश दिखाते हैं। .यह गुरु को सर्वोच्च स्थान देता है, जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान ही शक्ति और महिमा रखते हैं। गुरु की सेवा की जाए, तो वह सेवा ईश्वर तक ही पहुँचती है। ‘शिष्य’ वह होता है जिसमें सीखने की तड़प हो, श्रद्धा रखता हो और अपने जीवन में गुरु के उपदेशों को आत्मसात करने की उत्कंठा रखता हो। शिष्यता केवल ज्ञान प्राप्त करना नहीं है, बल्कि अहंकार का त्याग कर समर्पण के भाव से गुरु के चरणों में लीन होना है। आध्यात्मिक उन्नति हेतु जो गुरु द्वारा बताई साधना करता है, उसे ‘शिष्य’ कहते हैं। शिष्य के श्रेणी में आने हेतु मुमुक्षुत्व का गुण होना भी अनिवार्य है। वास्तव में जबतक शिष्य यह बात ठान न ले, तब तक वह जीवन मुक्त नहीं हो सकता। जिसकी प्रज्ञा जागृत हुई, वही वास्तविक शिष्य है। प्राचीन काल में शिक्षा का प्रमुख माध्यम गुरुकुल व्यवस्था थी, जहाँ शिष्य गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे। यहाँ शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं होती थी, बल्कि धर्म, नीति, व्यवहार, अस्त्र-शस्त्र, संगीत, योग और आत्मज्ञान की भी शिक्षा दी जाती थी। उदाहरणस्वरूप, श्रीराम ने ऋषि वशिष्ठ एवं विश्वामित्र से शिक्षा प्राप्त की; श्री कृष्ण ने ऋषि सन्दीपन से शिक्षा प्राप्त की। सक्ष्म गुरु केवल शास्त्रों का ही ज्ञाता नहीं होता, वह शिष्य की आत्मा का चिकित्सक भी होता है। जब शिष्य अपने संदेहों, भ्रमों और अहंकारों से मुक्त होकर गुरु के सान्निध्य में आता है, तब उसे आत्मसाक्षात्कार का मार्ग प्राप्त होता है। गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए शंकराचार्य ने कहा है : ज्ञानदान करनेवाले सद्गुरुओं की उपमा इस त्रिभुवन में कहीं भी नहीं मिलती। यदि उन्हें पारस की उपमा दी जाए, तो भी वह अधूरी ही रहेगी; क्योंकि पारस लोहे को स्वर्ण तो बना सकता है, परंतु उसे अपना ‘पारसत्व’ नहीं दे सकता। कल्पवृक्ष की उपमा दी जाए तो भी कम है, क्योंकि कल्पना करने से उसका महिमा मिलता है। परंतु बिना कल्पना किए ही जो इच्छा पूर्ण कर दे, वह कामधेनु स्वरूप श्रीगुरु ही हैं। वास्तव में गुरु को उपमा देने योग्य कोई भी वस्तु इस जगत में नहीं है। सबसे बड़ा प्रमाण गुरु शिष्य पवित्र परंपरा का महामहोत्सव है। गुरु पूर्णिमा। जैसा कि आप सभी को मालुम है कि आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन महाभारत के रचयिता महर्षि वेद व्यास जी का जन्म हुआ था। ऐसी मान्यता है कि गुरु पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने अपने पहले सात शिष्यों सप्त ऋषियों को सबसे पहले योग का दिव्य ज्ञान प्रदान किया था। तदोपरान्त इस ज्ञान को लेकर सप्तऋषि पूरी दुनिया में गए। तभी से गुरु शिष्य की पवित्र परम्परा चली आ रही है। गुरु शिष्य पवित्र परंपरा का महोत्सव है गुरु पूर्णिमा। आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन महाभारत के रचयिता महर्षि वेद व्यास का जन्म हुआ था। ऐसी मान्यता है कि गुरु पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने अपने पहले सात शिष्यों सप्त ऋषियों को सबसे पहले योग का दिव्य ज्ञान प्रदान किया था। सप्तऋषि इस ज्ञान को लेकर पूरी दुनिया में गए। गुरु पूर्णिमा का दिन वह समय है जब साधक गुरु को अपना आभार अर्पित करते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। साधक जब अपने सद्गुरू के सान्धिय में आध्यात्म के पथ पर साधना और ध्यान का अभ्यास करते हुए अपने जीवन को सफल बनाने के लिए निकल पड़ते है। गुरु प्रेम को अर्पित यह पवित्र पावन दिवस को गुरु पूर्णिमा को विशेष लाभ देने वाला दिन माना गया है। गुरू पूर्णिमा के महा महोत्सव में कलम के सिंपाई भी अपनी सेवा, श्रद्धा, समर्पण के भाव पुष्प अपने सद्गुरूदेव – माँ के युगल श्री चरणों में यह कहते हुए जिन हथेलियों पर आपने दिये थे छड़ी के निशान, हम हमेशा ही रहे आप के दिव्य ज्योति से रहे अनजान। आपने हमें पल पल कराते थें बह्म र्दशन का ज्ञान, आप ही थी मेरे कृपा निधान।
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