अरावली की वादियों में बरस रहे हैं होली के रंग-रस,.

अरावली की वादियों में बरस रहे हैं होली के रंग-रस,.

-फागुनी हवाएँ गा रहीं श्रृंगार के गीत

-डॉ. दीपक आचार्य-

आम तौर पर होली को दो-चार दिन का त्योहार माना जाता है लेकिन राजस्थान का मालवा और गुजरात की सरहदों से लगा वागड़ अंचल ऐसा प्रदेश है जहाँ होली दो-चार दिन या सप्ताह नहीं बल्कि माह भर पूरी मौज-मस्ती के साथ मनती है और मस्ती भी ऐसी कि इसमें हर कोई भीगता और भिगाता हुआ चरम आनन्द और सुकून का अहसास करता-कराता है।

मौज-मस्ती का पैगाम देती है गोठ

वागड़ अंचल में गोठ सांस्कृतिक परम्परा का एक अहम् हिस्सा है जिसमें सामूहिक आनन्द की उन्मुक्त अभिव्यक्ति होती है। यों तो गोठ विभिन्न सामाजिक उत्सवों में भी प्रचलित रही है और उसका व्यापक अर्थ पिकनिक के रूप में निकाला जाता है लेकिन होली की गोठ का सीधा सा अर्थ है ऐसा सामूहिक उल्लास पर्व जिसमें उन्मुक्तता के साथ प्रदर्शन और गहन भावनात्मक लगाव हर पहलू में दिखाई देता है।

वागड़ की संस्कृति में रची-बसी गोठ इस अंचल में हर कहीं अपने विभिन्न रूपाकारों में दृष्टिगत होती है। ख़ास तौर पर होली के दौरान् ढूंढोत्सव पर गोठ का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। यह ढूंढोत्सव होली के सप्ताह भर पहले से ही आरंभ हो जाता है।

श्रृंगार गीतों की बारिश

यहां सामाजिक स्तर पर गोठ का आनन्द बहुगुणित दिखाई देता है। स्थानीय ग्राम्य परम्पराओं में युवतियाँ नव विवाहित दम्पत्तियों के पास गोठ लेती हैं। कई क्षेत्रों में गोठ का तात्पर्य उपहार में ली जाने वाली धनराशि से होता हैं। गोठ लेने वाली युवतियाँ गोठ लेने के साथ ही परम्परागत श्रृंगार गीतों से लोकानुरंजन करती हैं।

गोठ में एकत्रित राशि जमा कर दुकान पर नारियल व गुड़ लाकर ये युवतियां इनका सेवन करती हैं। वर्तमान संदर्भ में अब रेस्टोरेंट्स व होटलों पर जाकर खाने-पीने का मजा लिया जाता है।

संभ्रान्त समाजों में गोठ के अन्तर्गत युवकों व युवतियों के समूह घर-घर जाकर होली के फागुनी गीतों की बरसात करते हुए राशि एकत्र करते हैं और बाद में गोठ के रूप में एक दिन तय कर सभी युवा इकट्ठा होकर पिकनिक का आनन्द लेते हैं।

यों होली की गोठ भी होली की तरह दो-चार दिन सिमट कर नहीं रह जाती बल्कि पखवाड़े और माह भर तक चलती है। किसी भी छुट्टी के दिन यह गोठ अर्थात पिकनिक मूर्त्त रूप ले सकती है।

मस्ती का ज्वार उमड़ाते हैं गैरिया

वागड़ अंचल में होली के दस-पन्द्रह दिन पहले से ही होली की धूमधाम भरी गतिविधियां शुरू हो जाती हैं। समूचे वाग्वर अंचल की सदियों पुरानी परम्परा के अनुसार माघ पूनम के दिन होली चौक में रंगीन ध्वज के साथ सेमल के पेड़ का तना लगाया जाता है और इसी दिन से क्षेत्र भर में होलिकोत्सव की रंग-बिरंगी शुरूआत हो जाती है जो फाल्गुन पूर्णिमा को होली तथा उसके बाद करीब पूरे पखवाड़े तक चलती है।

इस दृष्टि से वागड़ अंचल के लिए होली दो-चार दिन का त्योहार नहीं वरन् ऐसा महापर्व है जो माह-डेढ़ माह तक लोक जीवन को फागुनी रंग-रसों से नहलाता रहता है।

मनोहारी परम्पराओं का दिग्दर्शन

आदिम संस्कृति और परम्पराओं का जीवन्त दिग्दर्शन कराने वाले राजस्थान के दक्षिणांचल में न सिर्फ जनजातीय लोक सांस्कृतिक परिपाटियों की झलक मिलती है बल्कि मध्यप्रदेश और गुजरात के लोक जीवन, व्यापार-व्यवसाय, सामाजिक रीतियों और कई मनोहारी परम्पराओं को सहज ही देखा जा सकता है।

इन दिनों किशोरों की फक्कड़ मौज-मस्ती समूचे क्षेत्र में श्रृंगार रस की बारिश करती रहती है। इन फक्कड़ों को ‘होरी ना गेरिया’ कहा जाता है। होली के दिन तक इस डाण्डे की साक्षी में इन गेरियों द्वारा लकड़ियां जलायी जाती हैं।

गेरियों के अपने गीत होते थे। इन्हीं में आरंभिक गीत ‘‘सांग ले के गेरियो….’ उच्चारित किया जाता है। इसके जवाब में गेरियो की ओर से ‘गेरिया’ का घोष होता है। इस प्रकार समूहों में निकलने वाले ये गेरिये होली के दिन मौज-मस्ती का दरिया उमड़ाते हैं।

होती थी लकड़ियों की चोरी

होली से ठीक एक दिन पूर्व फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी की रात इन गेरियों के लिए महापर्व होती है। इस रात को ये गेरिये छोटी होली जलाते हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक इस रात को घरों, खेतों और लकड़ी भण्डारों से जबरन लकड़ियों की चोरी की जाकर इन्हें होली चौक लाकर जला दिया जाता था। इन हालातों में संघर्ष और झगड़े-फसाद आम बात थी। लेकिन होली के बहाने लकड़ियों की यह चोरी चलती रहती। अब इन हालातों पर करीब-करीब अंकुश लग चुका है।

हर चटख बाँटती है मिठास

आज भी होली के दिन कई समाजों में सामाजिक स्तर पर गैर निकलती है जिसमें आबाल-वृद्ध शामिल होते हैं। यह समूह गैर कहा जाता है। गैर में शामिल लोग समाज में घर-घर जाकर घर के बाहर रखी परात या थाली में चटख रखकर सामाजिक सौहार्द का पैगाम देते हैं।

बाँसवाड़ा शहर में औदीच्यवाड़ा की गैर सिंगवाव से शुरू होकर विभिन्न मन्दिरों में होते हुए त्रिपोलिया तक पहुंचती है। जहां-जहां भी मन्दिर आते हैं वहां भगवान के सम्मुख फागुनी भक्ति भरे श्रृंगार गीत गाए जाते हैं। इसमें ‘लाल केशा’ प्रसिद्ध होली गीत है जो हर किसी को मुग्ध कर देता है। इसके साथ ही मन्दिरों में फागोत्सव का माहौल छा जाता है। रोजाना अलग-अलग मन्दिरों में जाने वाली ये टोलियां देर रात तक फागुनी भजन और गीत सुनाती हैं।

रंग पंचमी का उल्लास

वागड़ अंचल में होली के बाद की पंचमी को रंग पंचमी के रूप में मनाया जाता है। इस दिन यों तो कई स्थानों पर मेले भरते हैं लेकिन डूंगरपुर जिले में भुवनेश्वर का फाग मेला और सागवाड़ा के समीप ओबरी का फूतरा पंचमी का मेला प्रसिद्ध है।

लोकनृत्यों पर थिरकते हैं मेलार्थी

भुवनेश्वर के इस मेले में भगवान शिव के सम्मुख होली के रंगों और रसों को समर्पित करने के साथ ही अपनी मनोकामनाएं पूरी होने की उम्मीद में शिव-पार्वती की पूजा-अर्चना करते हैं और मनौतियां छोड़ते हैं। इस मेले में डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा जिलों के विभिन्न स्थानों के अलावा दूर-दूर से भी लोग हिस्सा लेते हैं। मेले में धार्मिक अनुष्ठानों की पूर्ति के बाद मेलार्थियों के समूह मौज-मस्ती और फागुनी माहौल में खोने लगते हैं। गैर, घूमर आदि लोक नृत्यों की ताल देखने लायक होती है।

कई-कई गांवों से ढोल-नगाड़ों के साथ नृत्यों भरा परिवेश इस तरह हो उठता है जैसे शिव की आराधना में ताण्डव स्तोत्र हो। गैर नृत्यों की मस्ती में रमे हुए मेलार्थी पूरी मस्ती के साथ माहौल को फागुनी लोक लहरियों से गुंजाते रहते हैं। आदिवासी स्त्री-पुरुष मेलार्थी अपनी पारंपरिक पोशाक में ढोल-नगाड़ों, कौण्डियों और लोक वाद्यों के साथ शरीक होते हैं और गुलाल उड़ाते हुए अपनी ही मौज-मस्ती में मेला रंगों को बहुगुणित करते रहते हैं।

रंगपंचमी पर रंग-रसों का प्रवाह

रंगपंचमी को पर्वत की चोटी से भवनाथ की तलहटी तक फागुनी रंगों और लोक जीवन के रसों की सरिताएं रह-रह कर प्रवाहित होने लगती हैं। पर्वत शिखरस्थ मंगलेश्वर मन्दिर व बालकनाथ धूंणी पर शुरू होने वाली गैर फागुनी रस बरसाते हुए धीरे-धीरे नीचे सरकने लगती है और मन्दिर के समीप आकर विशाल गैर नृत्यों की मनोकारी फिजा़ँ में बदल जाती है।

दर्जनों लोक वाद्यों और सैकड़ों मेलार्थियों द्वारा खेली जाने वाली गैर वहां जमा हजारों लोगों को लोक संस्कृति की इन विलक्षण परम्पराओं के मोह पाश में बांधकर उल्लास के सागर में नहला देती है। इसमें कई दर्जन गांवों से फागुनी टोलियां जमा होती हैं जो कई किलोमीटर तक का माहौल फागुनी अन्दाजों पर थिरकाती रहती हैं।

उल्लास और उमंग का मेला बाजार

वागड़ की लोक रंगों से भरी होली का उल्लास साल भर तक उनके तन-मन को उल्लसित रखता है। मेले में हजारों मेलार्थियों की रेलमपेल मची रहती है। ये मेलार्थी अपने आराध्य भगवान भुवनेश्वर के दर्शन-पूजन कर आगामी वर्ष में सुख-समृद्धि की प्रार्थना करते हैं। लम्बे मेला बाजार सजते हैं जिनमें भारी भीड़ बनी रहती है। भुवनेश्वर शिवालय से सटे अहमदाबाद मुख्य मार्ग पर दोनों तरफ आधे किलोमीटर से भी ज्यादा लम्बा मेला बाजार सजता है।

दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट

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