मुफ्तखोरी की राजनीति
मुफ्तखोरी की राजनीति

वोट और बहुमत हासिल करने के लिए ‘मुफ़्तखोरी की पेशकश की जा रही है। इस हम्माम में लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल और नेता डूबे हैं। आपस में होड़ मची है। दलों और नेताओं का सीधा गणित है कि लालच में आकर आम मतदाता उनके पक्ष में वोट कर सकता है। यदि अर्थव्यवस्था का ‘डिब्बा गोल होता है, तो दलों और नेताओं का कोई गंभीर सरोकार नहीं है। उनका निजी नुकसान थोड़े हो रहा है! लगभग प्रत्येक राज्य पर लाखों करोड़ रुपए के कजऱ् का बोझ है। फिर भी बहुत कुछ नि:शुल्क बांटने की योजनाएं बनाई जा रही हैं। चुनावी घोषणाएं की जा रही हैं। हमने करीब 45 साल पहले चौ. देवीलाल की फ्री बिजली-पानी की घोषणाएं सुनी थीं। उन्हें ऐतिहासिक जनादेश हासिल हुआ। उसके बाद मुफ़्तखोरी की एक राजनीतिक परंपरा की शुरुआत हुई, जो चुनावों के दौरान कुछ ज्यादा ही गूंजती है। केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के दौरान किसानों की कजऱ्माफी का नया प्रयोग किया गया और करीब 55, 000 करोड़ रुपए के कजऱ् माफ किए गए। कुछ कांग्रेसी नेता 70, 000 करोड़ रुपए तक की कजऱ्माफी का दावा करते रहे हैं।
नतीजतन 2009 के लोकसभा चुनाव में यूपीए सबसे बड़ा गठबंधन बनकर उभरा। उसकी सरकार भी बनी। उसके बाद विभिन्न राज्यों में चुनाव जीतने के लिए कजऱ्माफी एक सशक्त हथियार बन गया। लगभग सभी राज्य सरकारों ने, कम या ज्यादा, किसानों के कजऱ् माफ किए। अब जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, वहां भी कजऱ्माफी एक बुलंद चुनावी मुद्दा है। सवाल है कि किसान का कजऱ् एक बार में ही माफ क्यों नहीं किया जा सकता? क्या किसान लगातार कजऱ्माफी के बावजूद कजऱ्दार बना रहेगा? यह निरंतर कजऱ् किसका है-बैंकों का, गैर-बैंकिंग आर्थिक संस्थाओं का अथवा सूदखोर महाजन का? बहरहाल किसान की कजऱ्माफी के अलावा, नि:शुल्क अनाज, फ्री बिजली-पानी, घरों में 300 यूनिट तक बिजली मुफ्त, छात्राओं-युवाओं को लैपटॉप या टैबलेट, बेरोजग़ारी भत्ता, फ्री साइकिल, फ्री स्कूटी, पुरानी पेंशन योजना, फ्री 6000 रुपए सालाना प्रति किसान, फसल बीमा आदि के अलावा प्रधानमंत्री के स्तर पर आवास योजना, आयुष्मान भारत योजना, उज्जवला,
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खुला आसमान
शौचालय, नि:शुल्क अनाज आदि की योजनाएं भी हैं। इनके अलावा, आरक्षण और विभिन्न मुआवजों की भी व्यवस्था है। हम मानते हैं कि लोकतंत्र में जन-कल्याणकारी योजनाएं अनिवार्य हैं। सरकारें गरीब तबके और ज़रूरतमंद आबादी के प्रति जवाबदेह होती हैं, लेकिन जिन राज्यों के चुनावों में मंगलसूत्र, चूडिय़ां, साडिय़ां, कलर टीवी, मिक्सी आदि के लालच फ्री में परोसे जाते हैं, उनमें कौन-सा जन-कल्याण निहित है? क्या ऐसी पेशकशों पर ही लोकतांत्रिक जनमत तय होने चाहिए? क्या गरीबी के प्रति यही सरकारी जवाबदेही है? दरअसल ऐसी खैरात बांट कर हमारे दल और नेता एक पूरी जमात को बेकार, निठल्ली बना रहे हैं। मुफ़्तखोरी के बजाय सरकारें ऐसे गरीबतम तबके के पात्र लोगों को ईमानदारी से नौकरियां अथवा स्थायी रोजग़ार मुहैया कराएं, तो अर्थव्यवस्था में विस्तार और सुधार होगा और एक पूरी, निकम्मी पीढ़ी कमाकर खाना और जीवन-यापन करना सीखेगी।
एक निश्चित उम्र में, एक निश्चित पेंशन की व्यवस्था सामाजिक सुरक्षा की बुनियाद है। यदि हमारे सांसद, विधायक, मंत्री आदि एक दिन की सेवा के लिए जीवन भर पेंशन पाने के हकदार हो सकते हैं, तो आम नागरिक इससे वंचित क्यों रखा जाए? हमारे निजी और असंगठित क्षेत्र में तो रिटायरमेंट के बाद पेंशन के प्रावधान ही नहीं हैं। प्रधानमंत्री रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने जिस नई पेंशन योजना की शुरुआत की थी, उसकी सही व्याख्या नहीं हुई, लिहाजा एक व्यापक वर्ग पेंशन के लाभ से वंचित है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने जिस समाजवादी पेंशन की दोबारा शुरुआत करने की घोषणा की है और लाखों मतदाताओं को आकर्षित करने का प्रयास किया है, दरअसल वह योजना ही सवालिया और छिद्रदार रही है। उस पर 10.8 अरब रुपए के घोटाले के आरोप हैं। ऐसे भी आरोप हैं कि करीब 44, 000 मृत लोगों के नाम पर भी पेंशन जारी की जा रही थी। बहरहाल इस विवाद को भी छोड़ते हैं। दरअसल चुनाव में उन योजनाओं की घोषणाएं की जाएं, जो अर्थव्यवस्था को पोपला न बनाती हों। मतदाताओं को लुभाने की कोशिशें एक सीमा तक ही की जानी चाहिए।
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