कहानी: दृश्य से बाहर…

कहानी: दृश्य से बाहर…

-देवांशु-

वह बूढ़ा किसान अपनी पत्नी के साथ शायद पहली बार शहर के सरकारी दफ्तर में आया था। उसे उम्मीद थी कि बाबू साहब लोगों के सामने हाथ जोड़ने से, गिड़गिड़ाने से शायद उसके खेतों को पानी मिलने की व्यवस्था हो जाएगी। सरकारी नियम कायदे से अंजान वह अपने खेत को केवल पानी देना चाहता था। एक लाचार किसान की मार्मिक कहानी।
मेरी नजर उसकी तरफ एकाएक ही पड़ी थी। जब मैने अपनी नजरें फाइल के पन्नों से हटाकर सामने की ओर देखा था, तब मुझे वह दिखा। वह मेरी ही तरफ टुकुर-टुकुर देख रहा था और आगे बढ़ रहा था। बीच-बीच में रुक भी रहा था। उसकी सांसें फूल रही थीं। वह खांस भी रहा था। शायद उसका गला सूख रहा था।
वह किसान था। वह किसान ही था। एकदम ठेठ भारतीय किसान। घुटनों के ऊपर तक उठी उसकी मटमैली धोती, ऊपर शरीर पर हाफ बाहों वाली पसीने सो भीगा कुर्ता। आखें धसी र्हुइं, गाल पिचका हुआ। अधपकी दाढ़ी, बदरंगे दांत, बिना तेल-कंघी किए हुए सिर के सफेद बिखरे बाल। उसका पूरा हुलिया किसी गरीब गांव के हताश किसान जैसा ही था।
जब वह मेरे टेबल के करीब आ पहुंचा, तब मैं समझ गया कि यह बूढ़ा गरीब किसान मेरे पास ही आ रहा है। अपने खेत में बिजली का पंप लगवाने के लिए। उसके साथ एक औरत भी थी। दुबली-पतली, सांवली। वह उसकी पत्नी होगी। उसके भी कपडे मैले और गंदे थे। मुझे वह औरत बीमार सी लग रही थी। वह अपने आंचल में कोई पोटलीनुमा चीज छुपाए रखी थी। मुझे लगा ये दोनों पहली बार शहर आए हुए है, और पहली बार सरकारी दफ्तर में। दोनों के चेहरे पर भय और थकान थी। आखों में आशा-निराशा के बीच झूलती थोड़ी सी उम्मीदों की गुंजाइश। दोनों मेरे टेबल के सामने आकर खडे“ हो गए।
उस वक्म सुबह के ग्यारह-साढ़े ग्यारह बज रहे थे। दफ्तर का काम-काज शुरू ही हुआ था।
बाबू साहब नमस्ते…..। दोनों ने एक साथ हाथ जोड़कर कहा।
नमस्ते! बोलो क्या काम है…? मेरी नजर फाइल के पन्नों पर गड़ी रही। वे दोनों बहुत देर तक यूं ही खड़े रहे। मैंने उन्हें चुप खड़े देखकर फिर पूछा।
बोलो क्या काम है…
मोर कागज आइस हावय का… बूढ़े ने छत्तीसगढ़ी भाषा में पूछा।
कौन सा कागज… मंैने उसकी तरफ देखकर पूछा।
बिजली के पंप कनेक्शन बर…
किस नाम से…
मोर नाव से…
तोर का नाव हावय… मैंने उससे पूछा। उसने सहज होकर कहा, काशीराम सूर्यवंशी…
गांव का क्या नाम है?
सीपत, गुडी…
मैं अलमीरा से रजिस्टर निकालकर उसका नाम ढूंढ़ने लगा। वह बूढ़ा वहीं नीचे फर्श पर बैठ गया। मैंने उसे वहां बैठने से मना किया। वह नहीं सुना, मैंने उसे समझाने की कौशिश में कहा, अरे…यहां मत बैठो, यह बैठने की जगह नहीं है। सामने बेंच पर जाकर बैठो…। उसने नहीं सुना। अपना दोनों पैर पसार कर वहीं बैठ गया। वह कुछ ज्यादा ही थका हुआ लग रहा था। जोर-जोर से हांफ रहा था। चपरासी को आवाज देकर मैंने उसके लिए पानी मंगवाया। पानी पीने के बाद वह कुछ ठीक लगने लगा। मैं रजिस्टर पर उसका नाम ढूंढ़ने लगा। थोड़ी देर बाद रजिस्टर बंद कर मैंने उससे कहा, तुम्हारा कागज तो इस कार्यालय में आया था, लेकिन दस्तावेजों में कुछ कमी के कारण उसे सीपत आॅफिस लौटा दिया है…।
यह सुनते ही बूढ़े का चेहरा उदास हो गया। पसीने से उसका चेहरा गीला तो था ही उस पर मेरी बातों के असर ने उसके चेहरे को काला बना दिया, वापस हावव… काबर बाबू साहब… का कमी रहि गईस हावय मोर कागज में …।
उसमें खसरा नंबर गलत लिखा है..।
हमन तो साहब सबो कागज ल आॅफिस में बाबू साहब करा जमा कर दे रहेन अउ बाबू साहब हमला कहय रहिस के सबो कागज ठीक हावय कोनो कमी नई हावय… फेर का हो गईस… वह हांफ रहा था। कुछ पल रुककर वह बोलने लगा, दो साल से ऊपर हो गए साहब मोर कागज ल जमा किये बर, और कतका समय लगही साहब।
मैंने उस बूढे को समझाते हुए कहा, तुम सीपत आॅफिस चले जाओ वहां तुम्हें साहब सब समझा देंगे…।
दोनों बहुत देर तक मेरी तरफ देखते रहे। मुझे उन दोनों का इस तरह मेरी तरफ देखना कोई नई बात नहीं लगी। विगत आठ-दस सालों से मैं इस सीट पर काम कर रहा हूं। न जाने कितने गरीब, असहाय, बीमार किसानों की गिड़-गिड़ाहटें, विनती और कातर स्वर सुनता रहा हूं, लेकिन मैं सरकारी मुलाजिम हूं। सरकारी नियम के अनुसार ही मैं काम कर रहा हूं, इसलिए मुझ पर उस बूढ़े की कातर दृष्टि का कोई असर नही़ं, हुआ। जब वह बहुत देर तक उस जगह से नहीं उठा, तब मुझे उसकी तरफ देखकर बोलना पड़ा, यहीं बैठे रहने से कोई काम नहीं होगा। तुम सीपत आॅफिस चले जाओ और अपना कागज ठीक करवाकर जमा करो…।
अभी तक वह औरत चुप खड़ी थी, एकाएक मेरी तरफ देखकर विनती के स्वर में बोलने लगी, बाबू साहब हमर खेत म पानी लेबर कोनो साधन नई हावय। तीर म कोनो नदिया, तरिया घलो नई हावय। खेतो ह उंच डहर हावय। बरसात के पानी ह खेत म नई रूकय। तोर सोज विनती हवय साहब तै ह जल्दी से हमर कागज ल ठीक करके खेत म पंप ल चालू करवा दे। तै ह अतका एहसान कर दे, हमन ह जिनगी भर सुरता रखबो..।
औरत की बातें सुनकर मैं कुछ उखड़ने लगा था। तभी वह अपनी साड़ी के पल्लू के अंदर जिस पोटलीनुमा चीज को छुपा रखी थी, उसे निकालकर मेरे टेबल पर रख दी।
गमछे में बंधा पोटलीनुमा सामान था। उस औरत की इस हरकत से मै हैरान रह गया।
यह क्या कर रहे हो…इसमें क्या है…?
औरत बोली, बाबू साहब ये तोर बर लाए रहेव एला तै लेबर मना झन करबे…।
मगर इसमें है क्या चीज…? मैंने आश्चर्य से पूछा।
ए म थोरकिन भूजे तिवरा हावय…। मोर खेत के, तै ह अपन लईका मन ल खेला देबे….. हमर करा तोला देबर अउ का रहि साहब कुछ नई हावय दो हजार रुपए पहले से ही सीपत वाले साहब को दे डरे हैं। अब और नगद पैसे नहीं हावें हमर पास न ही पैसे..।
मैंने उसे लेने से साफ मना कर दिया, नहीं मुझे यह सब सामान नहीं चाहिए…।
यह सुनकर वह बूढ़ा जमीन पर हाथ के बल उठ खड़ा होने लगा। फिर मेरी तरफ दोनों हाथ जोड़कर कातर स्वर में कहने लगा, ए ह तोला बने नई लगिस….. मैं ह तोला पाछू छोटे भाई के खेत ले हरियर मटर खेलाहूं। अभी ए ला रख ले हमन ल बने लगही…।
मंैने कहा न यह दफ्तर है। यहां यह सब नहीं चलता। इस पोटली को उठाओ और बाहर जाओ…। मैंने गुस्से से कहा।
बूढ़ा थोडा-सा झेंप गया। पोटली पत्नी के हाथों में देते हुए दरवाजे की तरफ चलने लगा। शायद वे दोनों यह सोचकर गांव से निकले थे कि शहर जाकर दफ्तर के बाबू साहब को प्यार से देंगे तो बाबू साहब बहुत खुश होंगे और उसके कागज जल्दी से तैयार कर देंगे और जल्दी से उसके खेत में मोटर पंप का पानी मिलने लगेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैं चाहता तो भी उनके लिए कुछ नहीं कर पाता। यह सरकारी दफ्तर है। और दफ्तर किसी की विनती या करुणा से नहीं चलता, नियम और साहब लोगों के निर्देशों से चलता है। उसके कागज में जो कमी थी, उसे मैं सुधार नहीं सकता था।
न जाने क्या सोचकर मैंने मोबाइल पर सीपत वाले साहब से उस बूढ़े के प्रकरण के बारे में बात की और कहा की उसके फाइल को जल्दी सुधार कर इस कार्यालय को यह सुनकर उसने मुझसे पूछा कि इस केस के लिए उस बूढ़े ने मुझे कितने पैसे दिए हैं? मैंने गुस्से से फोन काट दिया। एक बार सोचा कि उस अफसर से यह कहूं कि पैसा ही सब कुछ नहीं होता इंसानियत भी कोई चीज होती है, लेकिन यह सोच कर चुप रहा कि मुझ जैसा संवेदनशील इंसान का भ्रष्ट अफसर से क्या कहना, चुप रहना ही बेहतर है।
मैं अपने काम में व्यस्त हो गया। थोड़ी देर बाद दफ्तर के बाहर एका-एक चीखने चिल्लाने की आवाज सुनाई पड़ी। मैं खिड़की की तरफ लपका देखा, वह कोई और नहीं वही बूढ़ा आदमी था, बेहोश होकर नीचे गिर पड़ा है। धूप के कारण उसका सिर चकरा गया होगा। उसकी औरत वहीं पास बैठी जोर-जोर से चीख रही थी। दफ्तर का एक चपरासी उसके चेहरे पर पानी के छींटे मार रहा था। यह सोचकर कि थोड़ी ही देर में उसे होश आ जाएगा। तभी अचानक फोन की घंटी बजी। फोन सीपत वाले साहब का था। उसने कहा, आपने फोन क्यों काट दिया? क्या आप मेरे बातों से नाराज हो गए? अरे मै तो यूं ही कह रहा था। मैं उस प्रकरण को जल्दी भेज दूंगा…।
मेरे मुंह से शब्द नहीं निकले। मैंने फोन काट दिया। और नीचे उस बूढ़े को देखने गया।
बहुत देर तक जब बूढ़े को होश नहीं आया, पास खड़े लोग सकते में आ गए। एकाएक वह औरत बूढ़े के सीने पर दहाड़ मारकर रोने लगी। यह दृश्य देखकर मैं स्तब्ध रह गया। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि वह बूढ़ा मर चुका है। पोटली में बंधा सारा भूजा तिवरा उस बूढ़े के चारों तरफ बिखरा पड़ा था।
जो समाचार मैं टी.वी. पर देखता हूं, अखबार में पढ़ता हूं, वही सत्य घटना आज मेरे आखों के सामने घटी। एक और किसान की मौत हो गई है। यह आत्महत्या नहीं है। इस बूढ़े किसान की मौत सामान्य मौत भी नहीं है और न ही हत्या। यही सोचकर मैं परेशान होने लगा। और मैं स्वयं उस दृश्य से बाहर हो गया…।

दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट

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