कविता : आजादी की…
कविता : आजादी की…
-अरूण कुमार प्रसाद-
ये हवा जो उदास थी‚
संगीनों के पास–पास थी‚
किसी बाड़े से छूटी लगती है।
इसलिए हर तान और सुर में
कच्छ से बंग तक
लचक –लचक कर बहती है।
शब्द जो मुठ्ठियों में कैद थे
सेंसर की चिठ्ठियों से लैस थे
निरंकुश हुई फिर से एकबार और।
पुर्नप्रतिष्ठित हो सकी संसद से स्कूल तक
पा सकी अभिव्यक्ति की शक्ति‚स्वतंत्रता एकबार और।
आदमी‚शक्ल व अक्ल जिसके
दासत्व ने लिया था लील
हो गया था बदशक्ल।
जंगली पशुओं की भीड़ भरी असैनिक नकल।
पा सका है फिर आजादी का आईना
सजाने–संवारने मानवीय चेहरा।
दमन‚यातना‚और यंत्रणा की
अपसंस्कृत करतूतों के सिर
सकने रख
आदमियत का तराशा सेहरा।
हमारी आवाज
जो कर दिये गए थे ‘छन्दबद्ध’।
अपना भी नाम लेते थे तो बिल्कुल निःशब्द।
आरोपित तुकों के आरोह–अवरोह से सके थे निकल।
ताजे धुले हुए रँग–बिरँगे फूलों की तरह
कर सकने में हम हो गये समर्थ
भौंरों के साथ रसिक चुहल।
कलम और तूलिका
जो कहने लगे थे लोकतांत्रिक विरोध को बगावत।
झुकाये रहते थे सिर जमीन तक
करने राजसी मुकुट का स्वागत।
उठा सके गर्व और गौरव से अपने व्यक्तित्व का माथा।
रँगों की पकड़ सके पकड़ फिर
उतार सके कागजों पर फिर मानवतावादी गाथा।
राजनीति जो व्यक्तिगत सम्पन्नता का हो गया था प्रतीक।
धुरीहीन होकर लगाने धुरी का गया था सीख
निजी सन्दूकों से निकाले जा सके
आदमी आम के लिए।
बिकाऊ न रहा ज्यादा और गजरेवालों के शाम के लिए।
दीदार हिन्द की रीपोर्ट