“कर्ज़ की फसल”

“कर्ज़ की फसल”

भोला किसान, हल चलाता,
मिट्टी से सोना उपजाता।
फिर एक दिन आया बैंकर,
सूट-बूट में, मुस्काता।

बोला – “हम देंगे केसीसी कार्ड,
ताकि सपनों को मिले रफ्तार।”
पर हकीकत थी कुछ और ही,
न था उसमें कोई उपकार।

हर बार जब बैंक गया,
कुछ दस्तखत, कुछ फार्म भरा।
पता न चला कब ‘पॉलिसी’ बनी,
और खाते से पैसा कट गया।

जो उम्मीद थी सहारे की,
वो निकली साजिश बेचारी की।
न कर्ज़ माफ़ हुआ, न ब्याज रुका,
बस लूट की लहरें बह चलीं धरा।

खेत की रेत गवाह बनी,
जब पढ़ा-लिखा किसान समझा सच्चाई।
कैसे ये प्राईवेट बैंक
काटते हैं जेब, बिना सुनवाई।

हे सरकार, हे नीति नियंता,
क्या यही है “विकास” का चेहरा?
जहाँ किसान को भी
लूटते हैं बैंकों के गिद्ध सवेरा?

अब तो सावधान हो ऐ अन्नदाता,
तू ही देश की असली सत्ता।
पढ़, समझ, जाग, हिसाब माँग,
वरना ये सिस्टम तेरी चुप्पी खाएगा,
ता-उम्र हर साँस तक।

दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट

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