डॉ. भीमराव अंबेडकर (14 अप्रैल) जयंती पर विशेष: बहु-आयामी व्यरक्तित्व के धनी बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर

डॉ. भीमराव अंबेडकर (14 अप्रैल) जयंती पर विशेष: बहु-आयामी व्यरक्तित्व के धनी बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर

भारत बाबा साहेब भीमराव आबेडकर की 135वीं जयन्तीं मना रहा है; 135 वर्ष पूर्व आज के ही दिन भीम राव का जन्मब एक छोटे से गांव महू, जो वर्तमान में मध्य, प्रदेश में है, के पूर्ववर्ती अस्पृोश्य परिवार में हुआ था। वास्तलव में बाबा साहेब अम्बे्डकर के जीवन और कार्यों के बारे में व्यामपक अनुसंधान, अध्यवयन और लेखन हो चुका है। आज हम बाबा साहेब को स्वनतंत्रता आंदोलन के महानतम नेताओं में से एक के रूप में देखते हैं, जो न केवल एक क्रांतिकारी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में महान थे, बल्कि शैक्षिक दृष्टि से एक महान बुद्धिजीवी थे। बाबा साहेब नेताओं की उस श्रेणी से संबद्ध थे, जिन्हों्ने ऐसे विशिष्ट् कार्य किए, जिनके बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है, बल्कि उन्हों्ने स्वेयं भी उपयोगी विषयों पर व्याकपक लेखन किया, जो भावी पीढि़यों के लिए पढ़ने योग्या है।
जाने माने समकालीन इतिहासकार रामचन्द्रत गुहा ने अपनी पुस्त कों में से एक पुस्तपक मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया यानी आधुनिक भारत के निर्माता में बाबा साहेब को आधुनिक भारत के निर्माताओं की अग्रणी पंक्ति में रखा है, जिनका जीवन एक समान रूप से असाधारण बुद्धिमता और राजनीतिक नेतृत्व् की अभिव्य्क्ति है। एक जान-माने अर्थशास्त्री, सामाजिक चिंतक और राज्यु सभा सदस्यत नरेन्द्र जाधव ने छह खंडों और दो संस्ककरणों, क्रमश: आम्बे्डकर स्पी क्स और आम्बेभडकर राइट्स में आम्बेाडकर के भाषणों और लेखों को अलग-अलग संकलित एवं प्रकाशित किया है। जाधव ने आम्बेरडकर को एक महान बुद्धिजीवी की संज्ञा दी है।
बाबासाहेब बहु-आयामी व्यहक्तित्व के धनी थे। अर्थशास्त्र्, समाजशास्त्रक, मानवविज्ञान और राजनीति जैसे अधिसंख्यब विषयों में उनकी विद्वता ने उनमें एक स्पृतहणीय भावना पैदा की, जिसके चलते वे किसी विषय में किसी से कम नहीं थे। इन दिनों अत्य न्त चर्चित विषय अधिक मूल्य के नोटों का विमुद्रीकरण की परिकल्पयना बाबा साहेब ने उस समय की थी, जब वे अर्थशास्त्र् के विद्यार्थी थे। उनकी शाश्वित विरासत को किसी एक समुदाय, राजनीति, विचार या दर्शन तक सीमित करके देखना वास्तोव में, उनके प्रति गंभीर अपकार है। जिन पुरूषों और महिलाओं ने भारत के संविधान का प्रारूप तैयार किया वे अत्यनन्ति कल्परनाशील और दूरदर्शी थे। बाबा साहेब उस प्रारूप समिति के अध्यपक्ष थे, जिसने विश्वत के सर्वाधिक विविधता वाले राष्ट्रे के लिए सबसे लंबे संविधान का निर्माण किया। यह संविधान दुनिया की आबादी के छठे हिस्सेल के वर्तमान और भविष्यह को प्रभावित करता है। आप इस बात का सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं कि आर्थिक और लोकतांत्रिक विकास का समावेशी मॉडल तैयार करने के लिए कितनी अनुकरणीय बुद्धिमता की आवश्य्कता पड़ी होगी।
बाबा साहेब ने कहा था, पिछड़े वर्गों को यह अहसास हो गया है कि आखिरकार शिक्षा सबसे बड़ा भौतिक लाभ है, जिसके लिए वे संघर्ष कर सकते हैं। हम भौतिक लाभों की अनदेखी कर सकते हैं, लेकिन पूरी मात्रा में सर्वोच्च शिक्षा का लाभ उठाने के अधिकार और अवसर को नहीं भूला सकते। यह प्रश्नस उन पिछड़े वर्गों की दृष्टि से अत्य न्त महत्वठपूर्ण है, जिन्होंेने तत्कासल यह महसूस किया है कि शिक्षा के बिना उनका वजूद सुरक्षित नहीं है।
शिक्षा पर बल देने के मामले में बाबा साहेब कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अपने प्राचार्य जॉन डेवी से अत्यकन्तश प्रभावित थे। बाबा साहेब अपनी बौद्धिक सफलताओं का श्रेय अक्स र प्रोफेसर जॉन डेवी को प्रदान करते थे। प्रोफेसर जॉन डेवी एक अमरीकी दार्शनिक, मनो‍वैज्ञानिक और संभवत: एक सर्वोत्कृाष्टॉ शिक्षा-सुधारक थे।
बाबा साहेब औपचारिक शिक्षा विदेश में प्राप्तक करने के जबरदस्तस समर्थक थे। ऐसे समय में जबकि कानून की शिक्षा ब्रिटेन में प्राप्ते करना अधिक लाभप्रद समझा जाता था, बाबासाहेब ने शाश्वमत मानवीय मूल्योंक के प्रति आस्था् व्यतक्त करते हुए कोलंबिया विश्व विद्यालय में जाने का निर्णय किया। उन्होंकने अमरीकी रेलवे के अर्थशास्त्रच से लेकर अमरीकी इतिहास तक विविध पाठ्यक्रमों का अध्य यन किया।
डा. आम्बे कर ने मैन्मारड रेलवे वर्कर्स सम्मेकलन में 1938 में कहा था कि शिक्षा से अधिक महत्विपूर्ण चरित्र है। मुझे यह देख कर दुख होता है कि युवा धर्म के प्रति उदासीन हो रहे हैं। धर्म एक नशा नहीं है, जैसा कि कुछ लोगों का कहना है। मेरे भीतर जो अच्छाैई है या मेरी शिक्षा से समाज को जो लाभ हो सकता है, मै उसे अपने भीतर की धार्मिक भावना के रूप में देखता हूं। हमें यह समझना चाहिए कि महीनों और वर्षों तक आत्म मंथन करने के बाद उन्होंवने एक धर्म का चयन किया, जो उनके पैतृक धर्म के करीब था। दुनियाभर के धार्मिक प्रमुखों और वैचारिक नेताओं ने उनके समक्ष ऐसे आकर्षक प्रस्ताकव पेश किए, जिन्हेंन ठुकराना वास्त व में कठिन था। उनके व्यनक्तित्व के सांस्कृततिक और आध्याात्मिक पक्ष को समझना और विश्लेाषित करना अत्यमन्तक कठिन है। एकता में उनकी अटूट आस्थाक थी, जिसका अनुमान उनके इस कथन से लगाया जा सकता है, जातीय रूप में सभी लोग विजातीय हैं। यह संस्कृरति की एकता है, जो सजातीयता का आधार है। मैं इसे अनिवार्य समझते हुए कह सकता हूं कि कोई ऐसा देश नहीं है जो सांस्कृनतिक एकता के संदर्भ में भारतीय प्रायद्वीप का विरोधी हो।
भारत की विदेश नीति को आकार प्रदान करने में उनके योगदान की कूटनीतिक समुदाय द्वारा अक्स र अनदेखी की जाती है। भारत पर चीन के हमले से 11 वर्ष पहले बाबासाहेब ने भारत को पूर्व चेतावनी दी थी कि उसे चीन की बजाय पश्चिमी देशों को तरजीह देनी चाहिए और तत्कांलीन नेतृत्व् से कहा था कि संवैधानिक लोकतंत्र के स्तमम्भब पर भारत के भविष्यक को आकार प्रदान करे।
1951 में लखनऊ विश्वीविद्यालय में विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंुने कहा था कि सरकार की विदेश नीति भारत को सुदृढ़ बनाने में विफल रही है। भारत संयुक्त राष्ट्रष सुरक्षा परिषद में स्था यी सीट क्योंा न हासिल करे। इस प्रधानमंत्री ने इसके लिए क्योंु नहीं प्रयास किया। भारत को संसदीय लोकतंत्र और मार्क्स्वादी तानाशाही के बीच एक का चयन करते हुए अंतिम निष्क्र्ष पर पहुंचना चाहिए।
चीन के संदर्भ में अम्बेाडकर तिब्बात नीति से पूर्णतया असहमत थे। उन्होंषने कहा था कि यदि माओ का पंचशील में कोई विश्वाास है, तो उन्हेंर अपने देश में बौद्ध धर्मावलंबियों के साथ निश्चिरत रूप से पृथक व्यावहार करना चाहिए। राजनीति में पंचशील के लिए कोई स्था न नहीं है। अम्बेलडकर ने लीग आफ डेमाक्रेसीज को अवांछित बताया। उन्होंशने कहा क्याब आप संसदीय सरकार चाहते हैं? यदि आप ऐसा चाहते हैं तो आपको उन देशों को मित्र बनाना चाहिए, जो संसदीय सरकार रखते हैं।

दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट

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