साम्प्रदायिकता के कलंक से बेपरवाह कट्टरपंथी और सरकार

साम्प्रदायिकता के कलंक से बेपरवाह कट्टरपंथी और सरकार

भारत में होने वाली सांप्रदायिक घटनाओं की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो आलोचना होती है, क्या वह सिर्फ हमारे विदेश मंत्रालय को ही सुनाई देती है और उसके द्वारा ऐसी आलोचनाओं का प्रतिकार करने से क्या सांप्रदायिकता का कलंक मिट जाता है? ‘सभी भारतीयों का डीएनए एक है’ कहने और ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ जैसे नारे उछालने भर से क्या ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ बनाया जा सकता है?

कर्नाटक के तुमकुरु का एक वीडियो हाल ही में वायरल हुआ है। वहां के एक घर में क्रिसमस के तीन दिन बाद कुछ लोग हिन्दू कट्टरपंथी घुस आए और सवाल करने लगे कि वे क्रिसमस क्यों मना रहे हैं, घर की महिलाओं ने हिंदुओं की तरह सिंदूर और मंगलसूत्र क्यों नहीं पहना हुआ है। उन्होंने यह भी पूछा कि परिवार के कुछ लोगों ने ‘ईसाई धर्म क्यों अपना लिया?’ हालांकि, महिलाओं ने उनका डटकर मुकाबला किया और कहा कि किसी की भी पूजा करना उनका विशेषाधिकार है। उन्होंने धर्मांतरण के आरोपों का खंडन भी किया। एक महिला ने तो सवाल करने वालों को ही आड़े हाथों ले लिया और कहा कि ‘आप हमसे सवाल करने वाले कौन होते हैं? मैं अपना मंगलसूत्र उतार सकती हूं, उसे एक तरफ रख भी सकती हूं।’ देर तक हुई तीखी नोकझोंक, पुलिस बुलाने के बाद ख़त्म हो सकी। हालांकि इस मामले की कोई औपचारिक शिकायत दर्ज नहीं की गई। बाद में पुलिस ने बताया कि उस परिवार के कुछ सदस्य कई सालों से क्रिसमस मना रहे हैं।

कहना न होगा कि अल्पसंख्यक – ख़ास तौर से मसीही समुदाय को प्रताड़ित किए जाने का यह पहला और अकेला मामला नहीं है। पूरे साल भर कभी प्रार्थना सभाओं में हुड़दंग मचाया जाता है, कभी धर्मांतरण का आरोप लगा कर झूठे मामले दर्ज करवाए जाते हैं तो कभी गिरिजाघरों में तोड़फोड़ की जाती है। बीते साल इस तरह की घटनाओं में क्रिसमस के बहुत पहले से तेजी आ गई। यह कोई संयोग नहीं है कि अधिकांश घटनाएं भाजपा शासित राज्यों में हुईं।

एक खबरिया पोर्टल के मुताबिक अक्तूबर में युनाइटेड अगेन्स्ट हेट, एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स, और युनाइटेड क्रिस्चियन फोरम (यूसीएफ) की ओर से जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले साल जनवरी से सितम्बर के बीच ही मसीही समुदाय पर हमले के तीन सौ से भी ज़्यादा मामले प्रकाश में आए हैं। सबसे ज़्यादा शिकायतें उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश और कर्नाटक से आईं लेकिन छत्तीसगढ़- जहां कांग्रेस की सरकार है, आश्चर्यजनक रूप से दूसरे नंबर पर रहा।

पिछली जनगणना के अनुसार, हिंदुओं और मुसलमानों के बाद ईसाई देश में तीसरा सबसे बड़ा धार्मिक समूह है, हालांकि उनकी कुल जनसंख्या पौने तीन करोड़ से कुछ ही अधिक है। प्रतिशत में देखा जाए तो देश की कुल आबादी में उनका हिस्सा महज 2.3 प्रतिशत ही है।

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लेकिन उनके ख़िलाफ़ हो रही घटनाओं से ज़ाहिर है कि भले ही संविधान में संशोधन न कर पाने की विवशता के कारण भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाना अभी संभव नहीं हो रहा है, लेकिन ईसाइयों को भी मुसलमानों की तरह दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश तो की जा सकती है। इस तरह अन्य गैर हिन्दू समुदायों को भी सन्देश दिया जा रहा है कि यदि उन्हें भारत में रहना है तो ‘हिन्दू प्रभुता’ के अधीन ही रहना होगा।

यह विचित्र है कि अनगिनत हिन्दूवादियों की संतानें जिस समुदाय के शिक्षा संस्थानों में – चाहे वे देश में हों या विदेश में, पढ़कर सही मायनों में ‘नागरिक’ कहलाने लायक बनती हैं, उसी समुदाय को प्रताड़ित करने में उन्हें रत्ती भर हिचक नहीं।

इन कट्टरपंथियों को मालूम होना चाहिए कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा का वे अनुसरण करते हैं, उसने भारत की आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा क्यों नहीं लिया था। महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन रहा हो या उसके बाद भारत छोड़ो आंदोलन, संघ ने अपने आपको उनसे अलग ही रखा। उसके कर्ता धर्ताओं का सोचना था कि अगर अंग्रेज़ों को नाराज़ किया गया तो मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिन्दुओं को एकजुट करने की उनकी कोशिशें कामयाब नहीं होंगी।

हिन्दू सेना नामक कोई संगठन तो महारानी विक्टोरिया का जन्मदिन भी मनाता है। वह मानता है कि अंग्रेज़ों ने भारत को मुगलों से मुक्त कराया। लेकिन वे भूल जाते हैं कि उन्हीं अंग्रेज़ों ने आधुनिक शिक्षा, स्वास्थ्य और रेल जैसी सुविधाएं स्थापित कीं। उनकी वेशभूषा, खान पान और रहन-सहन की शैली और सबके साथ हिन्दूवादियों ने भी अपनाई। यही हिंदूवादी ईसाइयत से घृणा और उसे मानने वालों के साथ हिंसक व्यवहार करते हैं, तो उनका पाखण्ड ही उजागर होता है।

एकबारगी मान लिया जाए कि हिन्दू कट्टरपंथियों को संघ का या अपने वैचारिक पुरखों का इतिहास पता नहीं होगा, उसे जानने में उनकी दिलचस्पी भी नहीं होगी, संविधान से भी उन्हें कोई लेना-देना नहीं होगा और अपनी करतूतों पर उन्हें शर्म भी नहीं आती होगी।

लेकिन सवाल ये है कि उनकी वजह से दुनिया भर में देश की जो बदनामी हो रही है, क्या उसकी भी परवाह उन्हें नहीं है? क्या वे सोच भी पाते हैं, कि जो सुलूक वे अपने देश में अल्पसंख्यकों के साथ कर रहे हैं, वैसा ही अगर विदेशों में रहने वाले हिन्दुओं के साथ होने लगे तो क्या होगा? भारत में होने वाली सांप्रदायिक घटनाओं की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो आलोचना होती है, क्या वह सिर्फ हमारे विदेश मंत्रालय को ही सुनाई देती है और उसके द्वारा ऐसी आलोचनाओं का प्रतिकार करने से क्या सांप्रदायिकता का कलंक मिट जाता है? ‘सभी भारतीयों का डीएनए एक है’ कहने और ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ जैसे नारे उछालने भर से क्या ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ बनाया जा सकता है?

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