मजबूत होती केंद्रीकृत राजनीति, दल-बदल का खेल हुआ तेज
मजबूत होती केंद्रीकृत राजनीति, दल-बदल का खेल हुआ तेज
पिछले महीने कांग्रेस के पूर्व सांसद आरपीएन (कुंवर रतनजीत प्रताप नारायण) सिंह दलबदल कर कांग्रेस की प्रतिद्वंद्वी पार्टी भाजपा में शामिल हो गए। आरपीएन सिंह साधारण कांग्रेसी नहीं थे। वह कांग्रेस के कई बार विधायक, केंद्रीय मंत्री तथा युवा कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के करीबी माने जाते थे। वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में, खासकर पश्चिमी लोकतंत्र में एक बड़ी पार्टी के बेहद महत्वपूर्ण सदस्य का इसतरह दलबदल करना दुर्लभ है।
पर दलबदल भारत की राजनीतिक संस्कृति में इस तरह रच-बस गया है कि यह ‘आयाराम-गयाराम’ के रूप में जाना जाता है। पिछले पांच साल में 417 विधायकों या सांसदों ने (जो भारत में विधानमंडल की कुल 4,664 सीटों का नौ प्रतिशत है) दलबदल कर दोबारा चुनाव लड़े हैं। दलबदल की इतनी ऊंची दर ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे विकासशील लोकतंत्रों में भी देखी गई है। भारतीय राजनीति में पार्टी विधायकों और सदस्यों में स्थायित्व के इस अभाव को मैं कमजोर पार्टीगत जुड़ाव के रूप में देखता हूं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौर में आर्थिक और राजनीतिक केंद्रीकरण की प्रवृत्ति पर बेशक कई विद्वानों ने ध्यान दिया है, पर मैं बताना चाहता हूं कि केंद्रीकरण की राजनीति कमजोर पार्टीगत जुड़ाव का स्वाभाविक नतीजा है और जो भारतीय राजनीति में बीमारी की तरह है। केंद्रीकरण की राजनीति के जरिये एक पार्टी के नेता और मतदाताओं में सीधा राजनीतिक संबंध बनाना दलबदल से मतदाताओं पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर को कम करता है। भारत में क्षेत्रीय पार्टियों ने सबसे पहले इस तरह के राजनीतिक केंद्रीकरण को अंजाम दिया, और मोदी खुद गुजरात के सफलतम मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इस तरह मौजूदा स्थिति भारत की केंद्रीय राजनीति के ‘क्षेत्रीयकरण’ को प्रतिबिंबित करती है-जो राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय राजनीतिक प्रणाली की शुरुआत है।
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कभी बेहद मजबूत रही कांग्रेस पार्टी 1990 के दशक में जब दरकने लगी, तब कई क्षेत्रीय पार्टियों ने चुनावी सफलता का परिचय दिया। वर्ष 1986 में राज्य स्तर पर एक विधायक के सामने जहां चार पार्टियों में जाने का विकल्प था, वहीं 1996 में राज्य स्तर पर दलों की संख्या बढ़कर आठ हो गई। जनता दल (सेक्युलर), जनता दल (यूनाइटेड), एनसीपी, राजद और तृणमूल कांग्रेस इनमें सबसे सफल नई क्षेत्रीय पार्टियां थीं। इन नई क्षेत्रीय पार्टियों में से कई ‘पारिवारिक फर्म’ की तरह हैं, जिसमें पार्टी पर उनके संस्थापकों और उनके परिवारों का ही नियंत्रण है।
जब कांग्रेस के कमजोर होने से भारतीय राजनीति को ज्यादा लोकतांत्रिक होना चाहिए था, तब इस राजनीतिक दुष्प्रवृत्ति की व्याख्या भला कैसे की जाए? जब संभावनाशील राजनेता कमजोर पार्टीगत जुड़ाव का परिचय देते हैं, तब नेताओं के दलबदल का खामियाजा नई पार्टियों को भुगतना पड़ता है। इसी कारण नई पार्टियां अलग-अलग नेताओं की लोकप्रियता के आधार पर आगे बढ़ने के बजाय केंद्रीकरण की राजनीति पर चलती हैं, जिससे कि पार्टी के मुख्य नेता और मतदाताओं के बीच सीधा रिश्ता बन जाए-जिससे कि पार्टी की स्वीकार्यता और उसके चुनावी प्रदर्शन पर दूसरे नेताओं का कम असर हो। इसके तहत वे अपने नेता की ईश्वरीय छवि बनाने के लिए राज्य के संसाधनों, पार्टी संगठन और मीडिया का भरपूर इस्तेमाल करती हैं।
राज्य स्तरीय चुनावों में तो यह प्रवृत्ति पहले से ही अस्तित्व में है, भाजपा और मोदी के केंद्रीय सत्ता में होने के कारण अब राष्ट्रीय राजनीति में भी यह प्रवृत्ति देखी जा रही है। इस राजनीतिक प्रणाली में पार्टी की लोकप्रियता उसके वादों और कामकाज के बजाय उसके नेता की छवि पर निर्भर करती है। इस तरह से देखें, तो राजनीतिक केंद्रीकरण उस राजनीतिक धारणा के विपरीत है, जिसमें देश के नागरिक आर्थिक स्थिति के लिए अपने जनप्रतिनिधियों को सीधे-सीधे जिम्मेदार ठहराते हैं। केंद्रीकरण की राजनीति में तकनीकी बदलाव ने बड़ी भूमिका निभाई है, जिसके तहत नागरिकों तक उनके लाभों का सीधे तकनीकी हस्तांतरण संभव हो गया है। वस्तुतः इस नई खूबी ने केंद्रीकरण की राजनीति को मजबूत बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है, जिसके तहत जनता के लिए
शुरू की कई कल्याणकारी योजनाएं स्थानीय नेताओं के बजाय मुख्य पार्टी नेता के इर्द-गिर्द ही केंद्रित रहती हैं।
भारतीय संदर्भ में दो मुख्य नीतिगत एवं तकनीकी बदलावों के जरिये यह संभव हुआ है। पहला है आधार, और दूसरा है भारत के नागरिकों को औपचारिक बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने वाले जन-धन खाते, जिनके जरिये सरकार अनेक सरकारी योजनाओं का धन सीधे नागरिकों के खातों में भेज सकती है। इस व्यवस्था ने मध्यस्थों और उन स्थानीय नेताओं को अप्रासंगिक बना दिया है, जो पहले नागरिकों को मिलने वाले सरकारी योजनाओं के लाभ का श्रेय खुद लेते थे। इसके अलावा विज्ञापनों, मीडिया प्रबंधन और पार्टी संगठन पर नियंत्रण के जरिये अपने नेता
की शानदार ब्रांडिंग की जाती है, नतीजतन कल्याणकारी योजनाओं को लक्षित नागरिकों तक पहुंचाने का उन्हें इतना श्रेय मिलता है, जितना पहले कभी नहीं मिलता था। पार्टी के टिकट केंद्रीकृत तरीके से बांटे जाते हैं और किसी प्रत्याशी का दोबारा मनोनयन भी पार्टी नेतृत्व पर निर्भर करता है।
इसका अर्थ यह है कि केंद्रीकृत राजनीति में, जिसमें आंतरिक लोकतंत्र नहीं होता, स्थानीय समीकरणों की उपेक्षा की जाती है और स्थानीय नेताओं को लंबे समय तक बर्दाश्त नहीं किया जाता। वर्ष 2014 में जब मोदी सत्ता में आए, तब एक भाजपा सांसद को दोबारा टिकट दिए जाने की संभावना 53 फीसदी ही थी। सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 1977 से ही पहला चुनाव जीतने वाले विधायक 60 फीसदी होते रहे हैं, जबकि हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में पहला चुनाव जीतने वाले विधायकों का आंकड़ा लगभग 78 फीसदी था। व्यापक अर्थ में केंद्रीकृत राजनीति एक नेता और एक पार्टी से अलग हटकर दरअसल एक ढांचागत प्रवृत्ति है, जो अब भारत में फल-फूल चुकी है।
(-लेखक नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं।)
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