खडख़ड़ जी, गरिमा व उत्पीडऩ..
खडख़ड़ जी, गरिमा व उत्पीडऩ..
-पीए सिद्धार्थ-
खडख़ड़ जी को आजकल न जाने क्या हो गया है? जब से उनके पोते ने उनकी मिमिक्री की है, उन्हें लगता है कि हर कोई उन्हें चिढ़ाते हुए उनका उत्पीडऩ कर रहा है। उनके दादा होने का बोध ख़तरे में है। उनकी गरिमा तार-तार हो रही है। कोई हँसता भी तो है उन्हें लगता है कि वह खी-खी की आवाज़ केवल उन्हें चिढ़ाने के लिए ही निकाल रहा है। इसलिए उन्होंने आजकल बाज़ार निकलना भी छोड़ दिया है। घर में अगर कोई खाँसता भी है तो उन्हें लगता है कि वह उनकी मिमिक्री कर रहा है। उनके मन में ऐसा भय बैठ गया है कि खडख़ड़ जी ने ख़ुद भी खाँसना छोड़ दिया है। दरवाज़ा खोलते हुए अगर वह चूँ-चूँ या खड़-खड़ की आवाज़ कर दे, तो उसी पर नाराज़ हो जाते हैं। एक बार तो ग़ुस्से में उन्होंने दरवाज़े पर ऐसी लात मारी कि तीन हफ़्ते तक प्लास्टर बाँधे घर पर पड़े रहे। प्लास्टर के ढीला होने पर जब उसमें खड़-खड़ की आवाज़ आने लगी तो उन्हें प्लास्टर पर ग़ुस्सा आने लगा। उसे घर में ही काटने लगे। बड़ी मुश्किल से बीवी के समझाने पर माने। उधर उनका पोता है कि मानता ही नहीं। उसे जब भी मौक़ा मिलता है कभी घर में, कभी पड़ोस में, कभी स्कूल में तो कभी खेल के मैदान में उनकी मिमिक्री करने लगता है। एक दिन तो हद हो गई। उसने नींद में ही खडख़ड़ जी की मिमिक्री शुरू कर दी और रात को घर में हंगामा हो गया।
खडख़ड़ जी ने ग़ुस्से में देश के उपराष्ट्रपति की तरह उसे सदन, क्षमा करें, घर से बाहर निकाल दिया। खडख़ड़ जी की पत्नी परेशान होकर मुझसे सहायता की अपील करते हुए मेरे घर पहुँच गईं। उनकी सारी बात सुनने के बाद मैं उन्हें आश्वास्त करते हुए बोला, ‘भाभी जी, कोई बात नहीं। आजकल मिमिक्री तो आम बात है। पहले तो केवल हास्य कलाकार ही बड़े नेताओं या अभिनेताओं की मिमिक्री करते हुए अपनी रोज़ी-रोटी कमाया करते थे। लेकिन जब से विश्व गुरू ने चुनावी रैलियों और सदन में विपक्षियों की मिमिक्री करना शुरू की है, लोगों ने इसे हलके में लेना शुरू कर दिया है। ’ भाभी गम्भीर होते हुए बोलीं, ‘इधर देश संवैधानिक संस्थाओं और पदों की गिरती गरिमा से परेशान है और इधर हमारे खडख़ड़ जी बिना किसी बात के मुँह फुलाए हुए दिन-रात ऐसे खड़-खड़ कर रहे हैं, मानो इन्होंने घर में कोई इलेक्शन जीतने के लिए मुद्दा खड़ा करना हो। ’ मुझे लगा कि मैं और अधिक गहरे प्रवेश करने वाला हूँ। मैं बोला, ‘किसी भी युग में जब ज्ञान क्षीण होने लगता है और उसकी निर्बलता पर अहंकार भारी हो जाता है तो जिज्ञासा कुंद हो जाती है।
यहीं से प्रारम्भ होता है मानस का ह्रास और व्यक्ति आर्कमिडीज़ की तरह ‘मैंने पा लिया, मैंने पा लिया’ के स्थान पर कंस या दुर्योधन की तरह कहना शुरू कर देता है-एक अकेला सब पर भारी। जब ज्ञान पिपासा का लगभग अंत होने लगे और हवा में जिज्ञासा नहीं अपितु छद्मज्ञान का अहंकार तैरने लगे तो महाभारत निकट होता है। देश में हिंसात्मक प्रवृत्तियां तथा असत्य का प्रचार दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। ऐसे लगता है मानो भारतीय जनमानस अज्ञानता के अंधे युग में प्रवेश कर चुका हो। अध्यात्म ढोंग में बदल रहा है तथा अन्याय और विध्वंस सामान्यजन का स्वभाव बनने लगा है। जब संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों का ऐसा स्वभाव है तो आम आदमी का क्या हाल होगा? मुझे लगता है कि देश की तरह खडख़ड़ जी को भी मनोचिकित्सक को दिखाने की ज़रूरत है। पर देश के उन करोड़ों लोगों का क्या होगा जो धर्म और राजनीति में अंधभक्त बनकर घूम रहे हैं? लेकिन उनसे पहले तो देश के रहनुमाओं की मनोचिकित्सा ज़रूरी है। ’ ‘आपने बिल्कुल ठीक कहा। लेकिन हमें पहल तो घर से ही करनी होगी। आपके एक मित्र मनोचिकित्सक हैं न, उनसे जल्दी समय ले लीजिएगा। अभी चलती हूँ, नहीं तो खडख़ड़ जी घर में नई खडख़ड़ शुरू कर देंगे। ’ इतना कहते हुए वह अपने घर की ओर निकल गईं।
दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट