आत्मविश्वास से खोलिए चिंता के बंधन
आत्मविश्वास से खोलिए चिंता के बंधन
जीवन में मिलने वाली असफलताएं कभी भी स्थाई नहीं होतीं। अकसर हम एक बार असफल हो जाने के बाद पुनरू प्रयास करने से डरने लगते हैं। कभी-कभी तो यह भी होता है कि हम बेहद अच्छा काम करने के बाद भी असंतुष्ट रहते हैं या किसी अन्य के विचारों द्वारा परिचालित होने लगते हैं। हमें अपने काम पर विश्वास नहीं होता और दूसरों से राय मांगने लगते हैं। ऐसे में यदि दूसरे लोग सराहना करते हैं तो हम उत्साहित हो उठते हैं लेकिन यदि वे जरा भी कमियां निकाल दें तो हम नेगेटिव में चले जाते हैं। हम अपना उत्साह खो बैठते हैं। हमें अपने भीतर कमियां ही कमियां नजर आने लगती हैं। लेकिन इस तरह के विचार सिर्फ हमारे पैर में पड़ी बेडियों का ही काम करते हैं। हमें इनसे बाहर निकलना चाहिए।
अपने काम के प्रति पॉजिटिव रवैया रखें और निरंतर आगे बढ़ते रहें। कभी ये न सोचें कि कोई क्या कहेगाज् क्या मैं ऐसा कर भी पाऊंगाज् क्या मेरे काम की तारीफ होगीज् आदि। हमें अपना बैस्ट करना चाहिए, बिना किसी पूर्वाग्रह या आशंका के। बाकी की सारी चिंताएं तो बस बेिडयों के समान हैं जो हमने खुद अपने पैरों में डाल रखी हैं। हम इन बेडियों में अपनी मर्जी से ही जकड़े हुए हैं क्योंकि यदि हम एक बार ठान लें तो ये झूठी बेडियां झट से टूट जाएं, क्योंकि ये मात्र हमारा वहम है। ऐसी कोई बेडियां हैं ही नहीं।
एक वाकया हैदृएक धोबी था। वह अपने गधे को रोज अपने साथ ले जाता। उससे काम लेता, बोझा उठवाता और फिर शाम को अपने दरवाजे पर बांध देता। वह गधा भी अपने मालिक का आज्ञाकारी था। एक दिन वह धोबी कुछ सामान लेने अपने गधे को साथ लेकर शहर गया। पूरे दिन दोनों बाजार की खाक छानते रहे। धोबी थककर चूर हो चुका था। उसने एक धर्मशाला में जाकर आराम करने का विचार किया। अब समस्या थी गधे की। गधे को बांधने के लिए जो रस्सी वह लाया था, न जाने कहां खो गई थी। शहर भी अनजाना और गधा एक जानवर। अब इसे कहां सुरक्षित रखा जाए। रात में कहीं इधर-उधर चला गया तो मुसीबत हो जाएगी। वह इसी उधेड़बुन में था, तभी एक बुजुर्ग उसके पास आए और उसकी परेशानी का कारण पूछा। उसने अपनी समस्या उन्हें बताई। बुजुर्ग ने समझाया, यह गधा है, तुम्हारी तरह समझदार नहीं। तुम एक काम करो, इसके गले में और पैर में रस्सी बांधने का अभिनय करो। ज्फिर देखो यह कहीं भी नहीं जाएगा।
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वह इस युक्ति को सुनकर हैरान हो गया। किन्तु इस वक्त इसे ही मानने के अलावा और कोई चारा नहीं था, इसलिए गधे के साथ वैसा ही अभिनय करने लगा जैसा बुजुर्ग ने कहा था। बुजुर्ग हंसते हुए चले गए। धोबी भी सोने चला गया। सुबह बड़े तड़के उसकी आंख खुल गई। वह घबराया हुआ बाहर आया। उसे चिंता थी कि कहीं उसका गधा रात को चला न गया हो, आखिर था तो जानवर ही न! किन्तु उसके आश्चर्य का ठिकाना न था। गधा तो आराम से जमीन पर बैठा हुआ था, सर झुकाए। धोबी ने गधे को पुचकारा और आगे की यात्रा के लिए उसे हांकने लगा किन्तु अब वह गधा टस से मस ही न हुआ। उसने गुस्से में गधे को मारना शुरू कर दिया, लेकिन गधा तो अब भी अपनी जगह से न हिला। धोबी उस पर क्रोधित हो उठा और वहीं पर पड़ी एक बेंत से उसकी पिटाई करने लगा। गधा पिट रहा था, रेंक रहा था, लेकिन दो कदम भी आगे को न बढ़ता था। गधे की आवाज सुनकर वे बुजुर्ग भी वहां आ पहुंचे।
बोलेदृये क्या कर रहे हो बेटा। इस नासमझ को क्यों पीट रहे हो। तुम्हीं ने तो इसे रात में एक अदृश्य रस्सी से बांधा था और अब जब ये चल नहीं रहा तो तुम इसे इतनी बेरहमी से पीट रहे हो। लेकिन बाबा मैंने इसे कहां बांधा था? ये आगे तो बढ़े। खुद-ब-खुद चलने लग जाएगा। बेटा! यह भोला जीव है। हमारी तुम्हारी तरह चतुर नहीं। यह अब भी उस अदृश्य रस्सी से बंधा है। तुम फिर से रस्सी खोलने का अभिनय करो। ज्फिर देखना यह तुरंत चल देगा। धोबी ने बुजुर्ग की बात मानकर वैसा ही किया और सच में इस बार वह गधा एक ही हांक में चल दिया।
मित्रो! हमारी सोच भी कुछ इसी तरह की होती है। हम अदृश्य चिंताओं से जकड़े रहते हैं। भूतकाल में की गई गलतियों या नाकामियों की जकडन से बाहर ही नहीं निकलना चाहते। वर्तमान को बोझ-सा बनाए रहते हैं। कभी पुरानी गलतियों पर रोते रहते हैं तो कभी भविष्य की चिंता में गले जाते हैं। जो बीत गया अब उस पर दुरूख मनाने का क्या फायदा। बेहतर तो यह हो कि पुरानी गलतियों से सीख लेकर आगे की ओर बढ़ा जाए। इसी प्रकार से जो भविष्य में होने वाला है, उसके लिए ख्याली पुलाव न पकाएं बल्कि पूरे आत्मविश्वास से जुटे रहें और यह विश्वास रखें कि सफलता जरूर मिलेगी। यदि हम अपने वजूद पर पड़ी वहम और आशंका की इस जकड़न को इस रस्सी रूपी बंधन को तोड़कर फेंक देंगे तो हम भी आगे की ओर बढ़ते चले जाएंगे।
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