ये हम पर लुत्फ कैसा ये करम क्या..

ये हम पर लुत्फ कैसा ये करम क्या..

-‘अजीज’ वारसी-

ये हम पर लुत्फ कैसा ये करम क्या
बदल डाले हैं अंदाज-ए-सितम क्या,
जमाना हेच है अपनी नजर में
जमाने की खुशी क्या और ग़म क्या,
जब उस महफिल को हम कहते हैं अपना
फिर उस महफिल में फिक्र-ए-बेश-ओ-कम क्या,
नजर आती है दुनिया खूब-सूरत
मेरे साग़र के आगे जाम ओ जम क्या,
जबीं है बे-नियाज-ए-कुफ़्र-ओ-ईमां
दर-ए-बुत-खाना क्या सेहन-ए-हरम क्या,
तेरी चश्म-ए-करम हो जिस की जानिब
उसे फिर इम्तियाज-ए-बेश-ओ-कम क्या,
मेरे माह-ए-मुनव्वर तेरे आगे
चराग़-ए-दैर क्या शम्मा-ए-हरम क्या,
निगाह-ए-नाज के दो शोबदे हैं
श्अजीजश् अपना वजूद अपना अदम क्या।।

दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट

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