जहां स्वयं प्रकट हुई राधा-कृष्ण की मूर्तियां,…
जहां स्वयं प्रकट हुई राधा-कृष्ण की मूर्तियां,…

एक तरफ भव्यता बिखेरती श्रीकृष्ण की जन्मभूमि है तो दूसरी ओर उदास और उपेक्षित खड़ा राधा का जन्मस्थल रावल है। यह भेदभाव ब्रजवासियों ने नहीं बल्कि पर्यटन और संस्कृति विभाग ने किया है। जिस ब्रज में श्रीकृष्ण जी का नाम दिन-रात जपा जाता है, जहां हर क्षण मुख पर राधा नाम लिया जाता है, वहां रावल की गुमनामी मन को बहुत कचोटती है। इस बात को लेकर भी बहुत हैरानी होती है कि रावल गांव पर्यटन के नक्शे से गायब है। प्रशासनिक उपेक्षा की धूल फांकते इस गांव की महत्ता के बारे में अधिकांश लोगों को पता नहीं है। यही वजह है कि यहां न श्रद्धालु हैं और न राधा की रट।
लाडली जी के प्राचीन गर्भ गृह के दर्शन को भक्त आएं भी तो कैसे? दूर-दूर तक कोई संकेतक नहीं, गोकुल से करीब आठ किलोमीटर दूर रावल गांव की राह आसान नहीं। पुरातन जानकारी के अनुसार यमुना की बाढ़ में मंदिर के प्राचीन बुर्ज ढह गए थे लेकिन बाद में हमने जीर्णोद्धार कराया। अब इस मंदिर का नजारा देखने योग्य है। इसे देखते ही कृष्ण एवं राधा की याद सहज ही आ जाती है।
गर्भ-गृह में विराजी राधा-कृष्ण की मूर्तियां हजारों वर्ष पहले करील के पेड़ के नीचे स्वयं प्रगट हुई थीं। आज भी वह पेड़ गर्भ-गृह के ऊपर है। ब्रज संस्कृति से जुड़ी कई पुस्तकों में राधा का जन्म स्थान रावल बताया गया है। संपादक गोपाल प्रसाद की पुस्तक ब्रज विभव में रावल का इतिहास वर्णित है। लेखक रामबाबू द्विवेदी ने लिखा है कि जिस समय भगवान कृष्ण का जन्म हुआ, उस समय नंद बाबा का निवास गोकुल में था और वृषभानु गोप का निवास गोकुल के पास यमुना के पूर्वी तट पर स्थित रावल नामक ग्राम में था। उसी स्मृति में यहां मंदिर बनवाया गया। मंदिर का शिखर मराठों ने बनवाया।
राधा रानी की मां कीर्ति रानी का पीहर भी रावल था। वैसे तो बहुत सारी मान्यताएं हैं लेकिन कुछ मान्यताओं के अनुसार राधा का जन्म श्रीकृष्ण से साढ़े ग्यारह महीने पूर्व रावल में हुआ था। ज्यादातर लोग इसी मान्यता में विश्वास करते हैं। लोगों का यह भी विश्वास है कि श्री कृष्ण से साढ़े ग्यारह महीने पूर्व राधा का जन्म रावल में हुआ था।
कन्हैया के नंदोत्सव में बधाई देने के लिए वृषभानु व माता कीर्ति करीब एक बरस की राधा जी को लेकर गोकुल आए। तब तक राधा ने अपने नेत्र नहीं खोले थे। प्रिया प्रियतम का प्रथम मिलन यहां हुआ। इसी अवसर पर प्रिया जी ने अपने नेत्र खोलकर श्री कृष्ण के दर्शन किए।
राधा-कृष्ण का युगल रूप हैं बांके बिहारी:- आज वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में बांके बिहारी का प्रकटोत्सव मनाया जा रहा है। मार्गशीर्ष मास की पंचमी तिथि को बिहारी जी के प्रकट होने के कारण इस दिन को बिहारी पंचमी के नाम से भी जाना जाता है। बांके बिहारी के प्रकट होने के संदर्भ में कथा है कि संगीत सम्राट तानसेन के गुरु स्वामी हरिदास जी भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे। इन्होंने अपने संगीत को भगवान को समर्पित कर दिया था। वृंदावन में स्थित श्री कृष्ण की रासस्थली निधिवन में बैठकर भगवान को अपने संगीत से रिझाया करते थे। भगवान की भक्ति में डूबकर हरिदास जी जब भी गाने बैठते तो प्रभु में ही लीन हो जाते।
इनकी भक्ति और गायन से रीझकर भगवान श्री कृष्ण इनके सामने आ जाते। हरिदास जी मंत्रमुग्ध होकर श्री कृष्ण को लाड करने लगते। एक दिन इनके एक शिष्य ने कहा कि आप अकेले ही श्री कृष्ण का दर्शन लाभ पाते हैं, हमें भी सांवरे-सलोने का दर्शन करवाएं। इसके बाद हरिदास जी श्री कृष्ण भक्ति में डूबकर भजन गाने लगे। राधा-कृष्ण की युगल जोड़ी प्रकट हुई और अचानक हरिदास के स्वर बदल गए और गाने लगे भाई री सहज जोरी प्रकट भई, जुरंग की गौर स्याम घन दामिनी जैसे। प्रथम है हुती अब हूं आगे हूं रिह है न टरि है तैसे।। अंग-अंग की उजकाई सुघराई चतुराई सुंदरता ऐसे।
श्री हरिदास के स्वामी श्यामा पुंज बिहारी सम वैसे-वैसे।। हरिदास जी ने कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं तो संत हूं। आपको लंगोट पहना दूंगा लेकिन माता को नित्य आभूषण कहां से लाकर दूंगा। भक्त की बात सुनकर श्री कृष्ण मुस्कुराए और राधा-कृष्ण की युगल जोड़ी एकाकार होकर एक विग्रह रूप में प्रकट हुई। हरिदास जी ने इस विग्रह को बांके बिहारी नाम दिया। बांके बिहारी मंदिर में इसी विग्रह के दर्शन होते हैं।
बांके बिहारी के विग्रह में राधा कृष्ण दोनों ही समाए हुए हैं अतः इनके दर्शन से एक साथ राधा-कृष्ण के दर्शन का लाभ मिलता है। मान्यता है कि यह विग्रह साक्षात श्री कृष्ण की प्रतिमूर्ति है। जो भी श्री कृष्ण के इस विग्रह का दर्शन करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है। भगवान श्री कृष्ण अपने भक्त के कष्टों को दूर कर देते हैं