मुंशी प्रेमचंद की 145वीं जयंती (31 जुलाई) पर विशेष: जब दो बैलो की जोड़ी से लमही बन गई महान!…

मुंशी प्रेमचंद की 145वीं जयंती (31 जुलाई) पर विशेष: जब दो बैलो की जोड़ी से लमही बन गई महान!…

-डॉ श्रीगोपाल नारसन-

मुंशी फिर याद
किये जा रहे है
कभी पूण्य तिथि पर
कभी जन्म दिवस पर
लेकिन समय के साथ
नमक का दारोगा
पूस की रात
हल्कू, जुम्मन,
मातादीन, होरी
सब खो गए है
लमही मुंशी के
नाम पर जिंदा है
मुंशी पुस्कालयो
की दराजों में
अगर मुंशी को हमने
दिल से जिया होता
उनके पात्रो को
न भुलाया होता
तो भारत अभी तक
स्वर्णिम बन गया होता
हर नुक्कड़ चौराहे पर
मुंशी नजर आया होता।
मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का सपना अधूरा होगा। वे एक संवेदनशील लेखक, जागरूक इंसान, प्रखर वक्ता तथा सुलझे हुए संपादक थे। मुंशी प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल कहे जा सकते हैं। वास्तव में हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं मुंशी प्रेमचन्द। इनका मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव है, जिन्हें उर्दू में नवाब राय और हिंदी में मुंशी प्रेमचंद के नाम से जाना जाता है। उपन्यास के क्षेत्र में उनकी उपलब्धि से प्रभावित होकर विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट की मान्यता दी। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा को विकसित किया, जिसने पूरी सदी के साहित्य को सम्रद्ध बना दिया।
बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की रचना की। उनकी प्रसिद्धि कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की ऊंचाई तक पहुंचे। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की उनकी लेखनी हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है।
मुंशी प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जनपद के लमही गांव में हुआ था। इनके पिता अजायबराय लमही गाव में ही डाकघर के मुंशी थे और इनकी माता आनंदी देवी एक ग्रहणी थी।
मुंशी प्रेमचन्द के बचपन में माता का देहांत होने पर इनके पिता गोरखपुर चले गए जहां इनके पिता ने दूसरी शादी कर ली। फिर चौदह साल की उम्र में इनके पिताजी का भी देहांत हो गया।
मुंशी जी का जीवन गरीबी में ही पला। पहनने के लिए कपड़े नही होते थे और खाने के लिए पर्याप्त भोजन नही मिल पाता था। घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी उन्हें रुला देने वाला होता था।
पिताजी के देहान्त के बाद सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना किसी पहाड़ पर चढ़ने से कम नही था। मुंशी प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट तक बेचना पड़ा और पुस्तकें भी बेचनी पड़ी।
एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ उन्हें एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने इनको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त करा दिया। अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने मैट्रिक तक पढ़ाई की। उन्हें पढ़ने का शौक था, वे वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने उनका सपना पूरा नही होने दिया।
महात्मा गांधी के आह्वान पर उन्होने सन1921 में अपनी नौकरी छोड़ दी। नौकरी छोड़ने के बाद कुछ दिनों तक उन्होने मर्यादा नामक पत्रिका में सम्पादन का कार्य किया। उसके बाद छह साल तक माधुरी नामक पत्रिका में संपादन का काम किया। सन1930 से सन 1932 के बीच उन्होने अपनी मासिक पत्रिका हंस एवं साप्ताहिक पत्र जागरण का प्रकाशन शुरू किया। कुछ दिनों तक उन्होने मुंबई मे फिल्म के लिए कथाएं भी लिखी।
उनकी कहानी पर फिल्म मज़दूर बनाई गई। जो सन 1934 में प्रदर्शित हुई। परंतु फिल्मी दुनिया उन्हे रास नहीं आयी और वह अपनी फ़िल्म कथा लेखन संविदा को पूरा किए बिना ही बनारस वापस लौट आए। प्रेमचंद ने मूल रूप से हिन्दी मे सन 1915 से कहानियां लिखनी शुरू की। उनकी पहली हिन्दी कहानी सन 1925 में सरस्वती पत्रिका में सौत नाम से प्रकाशित हुई। सन1918 ई में उन्होने उपन्यास लिखना शुरू किया। उनके पहले उपन्यास का नाम सेवासदन है।
मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध रचनाओ का उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेजी अनुवाद भी किया गया है। सन 1900 में मुंशी प्रेमचंद को बहरीच के सरकारी जिला स्कूल में सहायक अध्यापक की नोकरी भी मिल गई जिसमे उन्हें महीने में 20 रुपये वेतन के रूप में मिलते थे. तीन महीने बाद उनका स्थानान्तरण प्रतापगढ़ की जिला स्कूल में हुआ। धनपत राय यानि मुंशी प्रेम चन्द ने का पहला लघु उपन्यास असरार ए मा बिद लिखा था। इस उपन्यास मे उन्होंने मंदिरों में पुजारियों द्वारा की जा रही लूट-पाट और महिलाओ के साथ किये जा रहे शारीरिक शोषण के बारे में इंगित किया। उनके लेख और उपन्यास 8 अक्टूबर 1903 से फरवरी सन 1905 तक उर्दू साप्ताहिक आवाज़-ए-खल्कफ्रोम में प्रकाशित हुए।
प्रेमचंद के नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसम्बर सन 1910 के अंक में प्रकाशित हुई। मुंशी प्रेमचंद ने तत्कालीन सामाजिक हालातो का सजीव वर्णन अपनी साहित्यिक रचनाओ में किया है। उनकी रचनाओ में भटकते समाज, स्त्री दशा एवं समाज में व्याप्त विसंगतियो का दर्शन होता है।
स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में लिखी गई उनकी कहानी सोज़ेवतन सन 1910 में ज़ब्त की गई, उसके बाद अंग्रेज़ों के उत्पीड़न के कारण वे प्रेमचंद नाम से लिखने लगे। सन 1923 में उन्होंने सरस्वती प्रेस की स्थापना की। सन 1930 में हंस का प्रकाशन शुरु किया। इन्होने मर्यादा, हंस, जागरण तथा माधुरी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का संपादन किया।
हिन्दी साहित्य में मुंशी प्रेमचन्द ने हिन्दी कहानी को एक नयी पहचान व नया जीवन दिया। वे आधुनिक कथा साहित्य के जन्मदाता कहलाए। आम आदमी की घुटन, चुभन व कसक को अपनी कहानियों में उन्होंने खुलकर रेखांकित किया। 8 अक्टूबर 1936 को जलोदर रोग से पीड़ित हो जाने के बाद वे अपने आपको संभाल नही सके और जीवन की जंग हार गए। लेकिन उनका लिखा साहित्य सदैव के लिए चिरजीवी हो गया। तभी तो आज भी मुंशी प्रेम चन्द प्रासंगिक है और रहेंगे।
अलगू, धनिया, होरी
याद आ गया गोदान
दो बैलो की जोड़ी से
लमही बन गई महान
जन्म भूमि देख मुंशी की
मन मेरा हर्षित होय
प्रेमचन्द का प्रेम है
कलम हिलोरे लेय
माथे रज लमही की
मैं तो बन गया महान
साहित्य देवता के गांव मे
मिल गए चारो धाम
आत्मबोध मे रहूं सदा
परमात्मा हो पास
मुंशी जैसी कलम चले
रचे पूस की रात।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार है)

दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट

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