अव्यवस्था में..

अव्यवस्था में..

-प्रभा मुजुमदार-

समेटने को पडी है
बडे दिनो से
अस्त व्यस्त हुई अल्मारियां
बरसों पहले खेले गये
खिलौने
किसी की चाभी गुम
किसी का रिमोट
कुछ गोटियां
पहिया टूटी गाडियां
पुराने फैशन के हुए
या छोटे पडते कपडे
धूल जमी किताबें
पीली मटमैली
कॉपी और डायरियां.
घिसे और खरोंच लगे बर्तन
एक्सपायरी डेट निकली
दवाईयां
उधडे हुए स्वेटर
बंध टूटी चप्पल
अरसे से नही देखी गई अलबम.
बेकार पडे कैसेट्स
अधूरी लिखी चिठ्ठियां.
कही से भी
किया जा सकता है आरम्भ
शुरु की जा सकती है सफाई
घर के कोनों/अंतरों को
चमका देने के
संकल्प और ऊर्जा से भरी थी मैं
मगर जड सी हो जाती हूं
यादों का एक एक पल
गूंथा है
निर्जीव और बेमानी लगती
इन सब चीजों से.
जिंदगी के तमाम खुशनुमा पल
अपने मीठे अहसास, खुशबू
और गुदगुदी के साथ.
गुस्से, झगडे, शिकायतें
और मान-मनौव्वल
चलचित्र की तरह
स्मृतियां कैद कर लेती है.
यह मेंरा तहखाना
अपना खुद का कोना
छूट जाता है बार बार
गहमागहमी में.
मुट्ठी से जैसे
फिसलते जा रहे सारे अहसास
मैं भींच लेती हूं इन्हें
खालीपन के डर से।।

(साभार: रचनकार डाॅट काॅम)

दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट

Related Articles

Back to top button