अकाल
अकाल
-शंकर सिंह-

मौत के दरवाजें से
झांकती एक जिन्दगी
तरस रही है
एक बूंद पानी के लिये
तड़प रही है
एक रोटी के लिये
सरकारी आंकड़ों में
उत्पादन बढ़ा है
गतवर्ष की तुलना में
निर्यात बढ़ा है
फिर भी पलामू का
केशवराम भूख से व्याकुल
मौत के दरवाजे पर खड़ा है
तीन साल से
रबीॉ भदई और खरीफ
एक भी फसल नहीं हुई
तीन सौ एकड़ उपजाऊ जमीन
बंजर बन गई
फसल तो दूर
घास भी नहीं उग रही
आदिमानव की तरह
लोग जंगलों में भटकते हैं
पौधों की जड़ों को खोदते हैं
काटते-उखाड़ते हैं
कड़वाहट निकालने के लिये
पानी में उबालते हैं
फिर इसे चबाते हैं
पेट की आग बुझाने के लिये
बाजार में सरकारी गोदामों में
बहुत अनाज है
किन्तु ये
गरीब दाने दाने को मोहताज हैं।
दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट


