कहानी: डिजिटल राखी…
कहानी: डिजिटल राखी…
-डॉ. सत्यवान सौरभ-

रक्षाबंधन की सुबह थी। मुंबई के एक छोटे से अपार्टमेंट में रहने वाली श्रद्धा की आँखें अलार्म के तीसरी बार बजने के बाद खुलीं। खिड़की से बाहर झाँका तो बादलों से ढका आसमान और हल्की फुहारें उसके मन की हलचल से मेल खा रही थीं। लेकिन आज कुछ अलग था—आज रक्षाबंधन था।
श्रद्धा की माँ हर साल इस दिन पर घर को फूलों से सजाती थीं, मिठाई बनती थी, और भाई को तिलक लगाकर राखी बाँधने के बाद आरती उतारी जाती थी। लेकिन इस बार सब कुछ बदल चुका था। अब वह अकेली थी। माँ-पापा को गए हुए दो साल हो चुके थे, और भाई ऋषभ अमेरिका में था।
श्रद्धा ने अपने मोबाइल पर व्हाट्सएप खोला और भाई को “हैप्पी राखी भैया” का मैसेज भेज दिया। थोड़ी देर बाद उसने अपने लैपटॉप पर ज़ूम मीटिंग का लिंक खोल लिया — यह ऑफिस मीटिंग नहीं, भाई के साथ एक वर्चुअल राखी सेरेमनी की थी।
लिंक पर क्लिक करते ही स्क्रीन पर ऋषभ की मुस्कुराती हुई शक्ल आई।
“हाय दीदी! कैसी हो?”
“ठीक हूँ भैया… तुम्हें राखी की ढेर सारी शुभकामनाएं।” श्रद्धा ने कैमरे के सामने एक राखी दिखाई, और फिर पास रखे एक छोटे से थाल में तिलक, चावल और मिठाई का इंतज़ाम कर लिया।
ऋषभ मुस्कुराया, “इस बार कुछ खास किया है मैंने।”
“क्या?”
“तूने जो राखी मुझे मेल से भेजी थी, वो मैंने 3D प्रिंटर से प्रिंट की… और फिर उसको फ्रेम में लगवा लिया। मेरे वर्कडेस्क पर है।”
श्रद्धा की आँखें भीग गईं। उसने जानबूझ कर राखी इस बार अमेरिका भेजी थी, भले ही हर साल भाई मना करता था। आज पहली बार उसे लगा कि डिजिटल दूरी के बावजूद रिश्ता ज़िंदा है।
श्रद्धा ने तिलक किया, मिठाई खिलाई (स्क्रीन पर ही सही), और राखी बाँधी। ऋषभ ने भी डिजिटल गिफ्ट कार्ड भेजा, साथ में एक लंबा सा ईमेल:
“दीदी, हर साल तेरा बिना बोले सब कुछ समझ जाना, मेरी छोटी-छोटी बातों पर मुस्कुरा देना, और बिना कहे ही मेरी दुनिया को ठीक कर देना…
इन सबका कोई मोल नहीं है।
मैं जानता हूँ, तू अब अकेली है। पापा-मम्मी के जाने के बाद ये त्यौहार भी जैसे बेमानी हो गया था, लेकिन तूने कभी मुझे फील नहीं होने दिया।
तू मेरी सबसे बड़ी ताक़त है। राखी केवल धागा नहीं है, ये एक वादा है — कि चाहे मैं कितनी भी दूर रहूँ, तुझे हमेशा अपनी हिफाज़त में रखूँगा।
और हाँ… अगली बार राखी पर मैं इंडिया आ रहा हूँ। रियल राखी के लिए।
– तेरा ऋषभ”
दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट


