विवेक की कांवड़ उठाओ

विवेक की कांवड़ उठाओ

✍️ प्रियंका सौरभ

मैंने देखा —
शिव की गूंज में डूबे
कंधों पर उठाए भक्ति के भार,
पर आंखों में
ज्ञान की उजास नहीं थी…
बस नशा था — भीड़ का,
और तन का तप — मन का नहीं।

वे गा रहे थे —
हर हर, बम बम!
पर किसी की पीड़ा सुन न सके।
गंगा ले आए कलशों में —
पर प्यासे पड़ोसी को
एक बूंद न दे सके।

हे पथिक!
क्या शिव इसी में बसते हैं?
क्या मुक्ति
सिर पर जल ढोने से मिलती है?
या
किसी अनपढ़ को
अक्षर सिखाने से?

जो ज्ञान का दीप जलाए,
वही असली उपासक है।
जो विवेक की कांवड़ उठाए,
वही शिव का सच्चा दास है।

छोड़ दे
धतूरे की माला,
ओढ़ ले
करुणा का आँचल।
शिव वहीं मिलेंगे —
जहाँ कोई आँसू रोकने वाला होगा।

दीदारे ए हिन्द की रीपोर्ट

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