जो ज्ञान का सागर है वही सच्चा गुरु है!
जो ज्ञान का सागर है वही सच्चा गुरु है!
-डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट-

अबोध से जो बोध बनाएं
गुरु वही कहलाता है
जो जीवन में सन्मार्ग दिखाए
सम्मान वही तो पाता है
गुरु का रिश्ता पवित्र कहलाता
गरिमा इसकी घटने न पाये
शिष्य की उन्नति भाती गुरु को
सुखद अनुभूति होती गुरु को
परमात्म ज्ञान जो देता है
सच्चा गुरु वही होता है
परमात्मा का ध्यान करें
अपने गुरु को प्रणाम करें।
भक्ति मार्ग में किसी सिद्ध पुरूष ऋषि, संत, महात्मा, ज्ञानी को गुरु बनाने का चलन है। जबकि ज्ञान मार्ग या फिर रूहानियत की दृष्टि से देखे तो एक मात्र परमात्मा ही हमारा परम गुरु है, वही परमपिता है और वही परम शिक्षक है।
शास्त्रों में गुरू शब्द के शाब्दिक अर्थ भारी को अपनी तपस्या से जो सिद्ध कर कर देते है, वही अपनी रूहानियत व चेहरे पर तेज की दृष्टि से आध्यात्मिक क्षेत्र में सिद्ध पुरूष रूप में प्रतिष्ठित होते है। कहा भी गया है कि जो ज्ञान से भारी है, वही गुरू है और गुरु ज्ञान स्वयं में एक ऐसा अथाह सागर है जिसकी थाह ले पाना भी आसान नही है। गुरू शब्द जिसके सामने लग जाता है उसे अन्यो से श्रेष्ठतम और विशिष्ठतम बना देता है। यथा गुरूत्वाकर्षण, गुरूज्ञान आदि। चूंकि गुरु भी श्रेष्ठतम महापुरूष होते है। इसी कारण गुरु के नाम से गुरु धाम भी प्रतिष्ठा सम्पन्न हो जाता है। गुरू को पौराणिक साहित्य में इतनी महत्ता दी गई कि उसे ही विष्णु, उसे ही ब्रहमा और उसे ही महेश्वर कहा गया है। गुरु देवता तूल्य होता है। गुरु की इस तुलना का अर्थ मात्र गुरू का महिमा मण्डन करना नही है। कई मायनो में गुरु भी ब्रहमा, विष्णु व महेश के समतूल्य होते है क्योकि गुरु ही वह शक्ति है जो अपने शिष्यो और अनुयायियों को ब्रहमा, विष्णु और महेश से मिलाने के लिए, उन्हे आत्मसात करने का मार्ग बताते रहे। तभी तो प्रभु शरणम से पहले गुरू शरणम का प्रचलन है।
युगप्रर्वक संत कबीर दास ने गुरू के सच्चे रूप और कार्य का वर्णन अपने एक दोहे में किया है। गुरू गोविन्द दोउ खडे काके लागू पाये, बलिहारी गुरू आपनो गोविन्द दियो बताए। यानि गुरू और गोविन्द दोनो खडे हो और पहले पैर किसके छूयें को लेकर संशय हो तो पहले गुरू के पैर छूने चाहिए क्योकि गुरू ही वह माध्यम है जो गोविन्द से मिलने का मार्ग बताता है। कई बार गुरू और अध्यापक को एक दूसरे का पर्याय मान लिया जाता है। परन्तु यह ठीक नही है। गुरू और अध्यापक एक नही हो सकते। अध्यापक अधिकाशत भौतिक विधाएं सिखाता है। लेकिन गुरू मनुष्य रूपी शिष्य को पूर्ण रूपेण आध्यात्मिक विकास व समग्र कल्याण के लिए तैयार करता है। उसी प्रकार गुरु अपने भक्तों को परमात्मामय बनने का रास्ता दिखाकर अपने भक्तों पर उपकार करते रहे है। गुरु की प्ररेणा से ही देश दुनिया को परमात्मा का सद सन्देश मिलता है और इस पुनीत कार्य मे गुरु ही सफल सिद्ध हो रहे है। गुरु की सोच है कि, मनुष्य जीवन का उददेश्य है जीवन मरण के चक्र से निकलना और अपने कर्मो को भोगकर मोक्ष प्राप्त करना होता है। मोक्ष प्राप्ति की इस प्रक्रिया में गुरू की भूमिका बहुत बडी है। गुरू अच्छे बुरे का ज्ञान कराता है। साथ ही अनेक भौतिक विधाओं का ज्ञान देता है। गुरू ही वह व्यक्ति है जो सत्य और असत्य के बीच का अन्तर समझाकर अपने शिष्य को सत्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। जब तक मनुष्य अपने सभी कर्तत्यों को पूर्ण कर प्रभु प्राप्ति के पथपर अग्रसर नही होता, तब तक गुरू उसे निरंतर निर्देश देकर उसे अपने उददेश्य की सतत याद दिलाता रहता है। ताकि शिष्य गुरू की इच्छा के अनुरूप जीवन के सन्मार्ग पर चलकर गुरू को अमरत्व प्रदान कर सके। वैदिक दर्शन में गुरू को एक चेतन देवता माना गया है। माता, पिता, पति, पत्नि, आचार्य इन सभी को चेतन देवता कहा गया है। मनुष्य के उपर इन पांचो देवताओं तथा जल, वायु, अग्नि, वनस्पति आदि जड देवताओं का कर्ज होना माना गया है। आचार्य कर्ज मुक्ति के लिए उनके द्वारा दिये गए ज्ञान को जीवन में उतारना और दूसरो में बांटना जरूरी है। मनुष्य के लिए आवश्यक है कि सभी जड और चेतन देवताओं के साथ साथ आचार्य कर्ज भी इसी जीवन में उतारेे। जिसके लिए गुरू पूर्णिमा जैसे अवसरों पर गुरू दक्षिणा देकर गुरू पथगामी बना जा सकता है। इससे गुरू के प्रति श्रद्धा तो बढती ही है गुरू का आर्शीवाद भी अपने शिष्यों पर बना रहता है।
गुरू का भारतीय समाज में एक विशिष्ट स्थान है। गुरू ही बालक में संस्कार भरकर उसे एक ऐसा मनुष्य बनाता है जो संस्कारो, विधाओं और विचारो से परिपूर्ण हो। इस समाज को ऐसे ही गुरू की आवश्यकता है जो विधाविभूषितकर कल्याण के मार्ग का पथिक बना सके। ऐसे ही गुरू समाज को अपनी दिव्य ज्ञान ज्योति से प्रकाशमान करते है। गुरु को भगवान से भी ऊंचा दर्जा प्राप्त हैं क्योंकि गुरु ही हमें अज्ञानता के अंधेरे से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाता है। कोरोनावायरस के कारण लोगों को इस बार अपने घरों में रहकर ही गुरु पूर्णिमा मनानी पड़ रही है। इस दिन आदिगुरु महाभारत के रचयिता और चार वेदों के व्याख्याता महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास अर्थात महर्षि वेद व्यास का जन्म हुआ था।
महर्षि व्यास संस्कृत के महान विद्वान थे। महाभारत महाकाव्य उनके द्वारा ही लिखा गया। सभी 18 पुराणों के रचयिता भी महर्षि वेदव्यास ही है। गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है।
भारत में सभी ऋतुओं का अपना ही महत्व है| गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु में ही क्यों मनाया जाता है। इसका भी एक कारण है| क्योकि इन चार माह में न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी होती है| यह समय अध्ययन और अध्यापन के लिए अनुकूल व सर्वश्रेष्ठ है| इसलिए गुरुचरण में उपस्थित शिष्य ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति को प्राप्त करने हेतु इस समय का चयन करते हैं|
जीवन में जिस तरह नदी को पार करने के लिए नाविक की आवश्यकता होती है, वाहन में यात्रा करते समय चालक की, उपचार कराते समय चिकित्सक की आवश्यकता होती है। ठीक इसी प्रकार जीवन को सफल बनाने के लिए एक गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु के मिल जाने पर गुरु पर आजीवन विश्वास करना होता है। ऐसा इसीलिए क्योंकि गुरु की अग्नि भी शिष्य को जलाती नहीं है अपितु उसे सही राह दिखाने का काम करती है।
गुरु पूर्णिमा पर किसी को अपना गुरु बनाने की सोच रहे हैं तो सबसे पहले खूब सोच-विचार कर लें क्योंकि जीवन में गुरु सिर्फ एक बार बनाया जाता है, बार-बार नहीं। गुरु बनाने से पहले कबीरदास के इस दोहे पर जरूर गौर कर ले, गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि। बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥ अर्थात जिस तरह पानी को छान कर पीना चाहिए, उसी तरह किसी भी व्यक्ति की कथनी-करनी जान कर ही उसे अपना सद्गुरु बनाना चाहिए। सद्गुरु ऐसा होना चाहिए जिसमें किसी भी प्रकार का लोभ न हो, मोह-माया न हो, भ्रम-संदेह से परे रहकर ही गुरु की शरणागत होना चाहिए। तभी कल्याण संभव है। लेकिन सबसे बेहतर परमात्मा को ही अपना परम् गुरु, परम् शिक्षक व परम् पिता माने तो परम् कल्याण संभव है।
(लेखक आध्यात्मिक चिंतक व वरिष्ठ पत्रकार है)
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