कहानी : झूले…
कहानी : झूले…
-जनक वैद-

हमारे घर के सामने वाले अहाते में नीम का बहुत बड़ा पेड़ था। दोपहर के समय आस-पास की गृहणियां अपने रोजमर्रा के काम से फुर्सत पा आपस में गपशप करतीं। समय का सदुपयोग करते हुए वे अपनी गप्पों के साथ ही सिलाई-बुनाई और अचार-पापड़ बनाने जैसे काम भी कर लेतीं थी। उन दिनों छोटे बच्चे अपनी ही दुनिया में मौज मस्ती करते।
इस नीम के पेड़ की शाखाएं ऐसी थीं कि एक ही समय में दो झूले डाल सकते थे। एक झूला छोटी लड़कियों के लिए तो दूसरा बड़ी लड़कियों के लिए। बड़ी लड़कियां तो झट से ऊपर जाकर झूला बांध कर उसी रस्सी के सहारे सरकती हुई नीचे आ जातीं। यहां तक कि कई छोटी लड़कियां भी बिना डरे यह काम कर लेतीं। एक मैं ही थी कि इनकी करामात को हैरान होकर देखती रहती।
खैर धीरे धीरे मैं भी छोटी शाखा पर झूला डालने की अभ्यस्त हो गयी। अब मेरा भी मन करता था कि मैं भी बंदरों की तरह उछलती कूदती ऊपर वाली शाखा पर झूला डाल वैसे ही निर्भीक हो रस्सी के सहारे नीचे सरक आऊं और दिखा दूं सबको कि मैं भी किसी से कम नहीं। एक दिन यह दुस्साहस भी मैंने कर ही लिया। ऊपर तो जैसे तैसे चढ़ ही गयी पर रस्सी के सहारे नीचे उतरना भी बड़ा ही कठिन था। रस्सी का कभी एक किनारा नीचे सरक जाता तो कभी दूसरा। डर के मारे हाथ पैर अलग कांप रहे थे। शाखाओं के सहारे भी नीचे उतरना आसान नहीं था। यदि गिर गई तो हड्डी-पसली एक समझो,यह बात भी दिमाग में चल रही थी।
उसी एक पल में मैंने अनेक देवी देवताओं के नाम का प्रसाद चढाने की मन्नत मानी थी। पर ऐसा लगा जैसे मेरी फरियाद कहीं भी कबूल ना हुयी। तभी याद आया कि अब तो केवल एक ही हस्ती बची थी,जिनके नाम का प्रसाद नहीं माना था और वह थे हनुमान जी महाराज। तुरंत हनुमानजी के नाम की सवा रुपए की मन्नत मान नीचे वाली शाखा पर कदम रखने का यत्न किया, पर यह शाखा भी मेरी पहुंच से कुछ नीचे थी। एक हाथ को छोड़ दूसरे हाथ से टहनियों को पकड़ना था। पर यह भय भी कि एक हाथ को छोड़ दिया और दूसरे हाथ में शाखा ना आई तो क्या होगा?
नीचे खड़ी सभी लड़कियों ने मेरी हिम्मत बंधाई कि डरने की कोई बात नहीं। सच ! उस दिन तो मेरी जान ही सूखी जा रही थी। ऊपर से यह डर कि पिता जी भी खेतों से लौटने ही वाले हैं। कहीं डांट ही ना पड़ जाए।
तभी एक लड़की ने कहा कि ” बून, तेरे सिर के ऊपर वाली शाख पर बंदर बैठा है। कहीं काट ही ना ले ! साथ ही खों खों की आवाज़ें भी आने लगीं।
उस पल मैं बुरी तरह डर गई थी। झट से लपककर नीचे वाली शाखा को पकड़ा। उसके आगे वाले हिस्से की शाखा तक उतरने चढ़ने की अभ्यस्त तो मैं पहले ही थी।इस लिए देखते ही देखते मैं नीचे आ पहुंची। नीचे आकर पता चला कि कुछ पल पहले बंदर की जो आवाज समझ मैं
नीचे कूदी थी, वह तो किसी लड़की की ही आवाज थी। मेरी ही एक सहेली ने मुझे नीचे उतारने के लिए यह पैंतरा आजमाया था। खैर उस दिन कान पकड़े की अब कभी ऐसी हरकत नहीं करना है।
मुझ से एक गलती यह भी हो गयी कि मैं स्वयं तो नीचे आ आयी पर रस्सियां वहीं लटकती रह गयी। तब मेरी एक हमउम्र सखी ने बड़ी फुर्ती से ऊपर जाकर सभी रस्सियां नीचे फेंकी और फिर लपकती फुदकती नीचे आ गयी।
उस समय तक पिता जी भी खेतों से लौट चुके थे । उन को जब मालूम हुआ कि पशुओं को बांधने वाले रस्सों से झूले डाले जाते हैं तो कहा कि यह बात ठीक नहीं। रस्सी टूट भी सकती है या गांठ ही खुल गयी तो… क्या होता..?
पिताजी अगले ही दिन करनाल जाकर झूले के लिए लोहे की सांकल ले आए। जिसे देख सभी लड़कियां बहुत प्रसन्न हुईं,क्योंकि अब यह सांकल हम सबकी निजी संपत्ति थी। जब चाहो पेड़ पर बांधो और जब चाहे उतारो। अब यह भय भी नहीं था कि पशुओं के आने का समय हो गया। उतरो नीचे। इस कारण जिस लडकी की बारी की कटौती हो जाती,वह भुनभुनाती हुई घर जाती थी तो अब यह समस्या भी खत्म हो गयी थी । अब हम लड़कियां चाहे जितनी देर तक झूला झूल सकते थे।
सावन के जिक्र के बिना तो झूले की हर कहानी अधूरी ही है। उन दिनों सावन में छोटी लड़कियां तो रोज झूला झूलती पर माह के प्रत्येक रविवार को बड़े झूले पर बड़ी लड़कियों का ही आधिपत्य होता। नये रंग बिरंगे सूट और घर में ही रंगी,कलफ लगी चुनरिया ओढे नव युवतियां।
ऐसा लगता जैसे कोई बहुत बड़ा पर्व मनाया जा रहा है।
विशेषकर इस माह के प्रत्येक सांवे अर्थात रविवार को सभी घरों में मीठे पुये व खीर बनती। जिसे सभी बड़े चाव से खाते। छोटी बच्चियां तो दोपहर का भोजन भी इसी अहाते के कोने में रखी हमारी बैलगाड़ी पर बैठ कर ही करतीं। उन को इस बात का डर होता कि कहीं झूले की बारी की कटौती ना हो जाए।
जिस लड़की की शादी हो चुकी होती उसे सावन में मायके बुला लिया जाता और फिर ससुराल से आता उसका नया जोड़ा। यदि कोई संपन्न परिवार हुया तो एक आध जेवर भी। सांवे वाले दिन यह तोहफ़ा पहन लड़की खुशी से फूली ना समाती।
भेंट लाने का काम करता ससुराल का ही कोई सदस्य।
किसी कारणवश यदि कोई ना आ पाता तो यह काम सौंपा जाता था गाँव के ही नाई को। लड़की के मायके परिवार से इस मेहमान को मिलता था भरपूर मान सम्मान और वापसी पर भेंट स्वरूप खेस या चादर।
शादी के बाद पहला सावन मायके में ….. सच कितना अच्छा रिवाज है। कितने भले होंगे हमारे पूर्वज जिन्होंने यह रिवाज बनाया। बेटियां अपने मायके आती हैं और बहुयें जाती हैं अपने मायके।
पर उसके बाद……?
इस प्रश्न से मैं उस समय विचलित हो गयी थी जब मैंने पड़ोस की एक बहू को,जिसे मैं भाभी कहती थी, जिसकी शादी को दो वर्ष हो गये थे..चारपाई को खड़ा कर उसके पाये से रस्सी बांध झूला बना कर उसे झूला झूलते देखा। मुझे देख वह चौंक गयी।फिर खिसयानी हँसी हँसते हुये बोली ” छोटी बीबी! बड़े बुजुर्गों से सुना है कि सावन में झूला ना झूला तो अगला जन्म भेड़ का मिलता है। इसीलिए मैंने यह पींग बनायी। यदि यह पींग ना बनाती तो अगले जन्म भेड़ बनती।
घर आकर मैंने मां को यह बताई। अगले सावन में भाभी अपनी बच्ची कैलाश (जिसे वह क्लाश कहती थी)
को गोदी में लेकर हमारे आंगन में झूला झूलने आई और फिर उसकी देखा देखी अन्य बहुएं भी हमारे आंगन में आने गयीं। और इस तरह पूर्वजों द्वारा चलाए गए रिवाज के अध्याय में कुछ और पन्ने जुड़ गये।
लेखिका परिचय : वयोवृद्ध लेखिका जनक वैद साहित्य की मौन साधिका के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनकी रचनाएं आजादी एवं देश के बँटवारे के समय पर केंद्रित है। 85 वर्ष की उम्र में आज भी लेखन में सक्रिय लेखिका का जन्म 28 मार्च, 1940 को पश्चिमी पंजाब के चक नंबर 468, तहसील समुंदरी, जिला लायलपुर के सिख जमींदार परिवार में हुआ। पिता स्वतंत्रता सेनानी थे। गाँव में स्कूल न होने के कारण घर पर ही पढ़ते हुए पंजाब यूनिवर्सिटी से वजीफा लेकर दसवीं की परीक्षा पास की। उसके बाद शादी हो गई। परिवार की जिम्मेदारियाँ निभाते हुए पंजाब यूनिवर्सिटी से ही हिंदी में स्नातकोत्तर किया। अभी तक छोटी-बड़ी पच्चीस पुस्तकें, जिनमें कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य में विशेष रुचि। हिंदी-पंजाबी की पत्रिकाओं में निरंतर लेखन। हिंदी पंजाबी, जालंधर, लेखिका संघ और ऑक्सफोर्ड सीनियर सेकेंडरी स्कूल, विकास पुरी, दिल्ली के मैनेजमेंट बोर्ड की पूर्व सदस्य। संस्कार संस्था (हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए) से भी जुड़ी रहीं। प्रस्तुत कहानी लेखिका के बचपन के संस्मरणों के अंशों पर आधारित हैं।
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