रेवड़ी संस्कृति पर चिंतन का समय, विकास कार्यों पर लग रहा ब्रेक.
रेवड़ी संस्कृति पर चिंतन का समय, विकास कार्यों पर लग रहा ब्रेक.
-डॉ. जगदीप सिंह-
महाराष्ट्र में भाजपा के नेतृत्व वाले महायुति और झारखंड में जेएमएम के नेतृत्व वाली गठबंधन की सरकारें अस्तित्व में आ गई हैं। अब बारी विधानसभा चुनाव के दौरान अपने-अपने राज्यों के मतदाताओं से किए गए मुफ्त के वादों को लागू करने की है। लाडकी बहिन योजना, मंइयां सम्मान योजना, किसानों की कर्ज माफी, मुफ्त बिजली, महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा और मुफ्त गैस सिलेंडर जैसे चुनावी वादे महाराष्ट्र और झारखंड में इन दिनों गूंज रहे हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि इनके लागू होने से दोनों राज्यों की आर्थिकी बिगड़ सकती है। देश में मुफ्त की घोषणाओं या रेवड़ियों की परिभाषा भले ही तय न की जा सकी हो, लेकिन ऐसे कदमों से राज्यों की माली हालत पर असर पड़ता ही है। मध्य प्रदेश, तेलंगाना, पंजाब, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में यह देखा जा चुका है।
महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ गठबंधन की ओर से 21 से 65 वर्ष की आयु की सभी महिलाओं को 1, 500 रुपये मासिक भत्ता देने का एलान किया गया है। महाराष्ट्र में इसे मध्य प्रदेश की लाड़ली बहना योजना की तर्ज पर शुरू किया गया था। इस स्कीम ने मध्य प्रदेश में भाजपा को चुनावी फायदा तो दिया, लेकिन ऐसे चुनावी वादों का नतीजा यह हुआ कि पिछले वित्त वर्ष में राज्य सरकार को जमकर उधार लेना पड़ा। परिणामस्वरूप मध्य प्रदेश का कुल कर्ज चार लाख 18 हजार करोड़ रुपये पर पहुंच गया।
इस साल भी उसे 94, 000 करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज लेना पड़ सकता है। महाराष्ट्र का हाल यह है कि चालू वित्त वर्ष के लिए महिला एवं बाल कल्याण विभाग की योजनाओं में जहां 4, 677 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था, वहीं केवल लाडकी बहिन योजना पर सालाना 46, 000 करोड़ रुपये खर्च होने हैं, वह भी 1500 रुपये महीने के आधार पर।
चालू वित्त वर्ष में उसका राजकोषीय घाटा उसकी जीएसडीपी का 2.6 प्रतिशत यानी दो लाख करोड़ रुपये रहने का अनुमान है। पिछले वित्त वर्ष में लगभग 46, 000 करोड़ रुपये तमाम सब्सिडी के तहत आवंटित हुए थे। इस साल के बजट में शिंदे सरकार ने लोकलुभावन योजनाओं के लिए करीब 96, 000 करोड़ रुपये का आवंटन किया था। निश्चित रूप से अब नए चुनावी वादों का बोझ महाराष्ट्र के बजट पर पड़ेगा। इससे उसके पूंजीगत खर्च पर आंच आ सकती है, जो पिछले साल से पहले ही कम हो चुका है।
झारखंड की बात करें तो वहां चालू वित्त वर्ष के लिए 1.28 लाख करोड़ रुपये का जो बजट पारित किया गया था, उसमें पहले ही कृषि कर्ज माफी की सीमा 50 हजार से बढ़ाकर दो लाख रुपये की जा चुकी है। इस वित्त वर्ष में उसका राजकोषीय घाटा राज्य की जीएसडीपी के 2.02 प्रतिशत रहने का अनुमान है।
खनन से होने वाली आमदनी के सहारे झारखंड वित्त वर्ष 2016-17 से राजस्व अधिशेष की स्थिति में है, लेकिन मंइयां सम्मान योजना के तहत महिलाओं को 2, 100 रुपये से लेकर 2, 500 रुपये महीने तक देने के वादे को पूरा करने की स्थिति में झारखंड का राजस्व अधिशेष का दर्जा खतरे में पड़ सकता है।
जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में भी अगर इसी प्रकार से राजनीतिक दलों द्वारा रेवड़ियां बढ़ती रहीं, तो इन राज्यों में भी आर्थिक संकट उत्पन्न हो सकते हैं। लोकलुभावन खर्च, सब्सिडी, मुफ्त की सुविधाएं तथा लगातार बढ़ते वेतन और पेंशन बिलों के कारण राज्यों को विकास के कार्यों के लिए कोई धन नहीं बच रहा है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों के लिए घोषणा पत्र जारी करने के लिए एक निश्चित गाइडलाइन तय की है, लेकिन इसका उन पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। दरअसल देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जिससे घोषणा पत्रों में की जाने वाली घोषणाओं को नियंत्रित किया जा सके।
हालांकि अभी सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ राजनीतिक दलों द्वारा वितरित मुफ्त उपहारों पर प्रतिबंध लगाने के लिए दायर याचिकाओं की सुनवाई कर रहा है। न्यायालय को जल्द ही इस मामले की सुनवाई पूरी कर इस बढ़ती बीमारी का इलाज करना चाहिए। अब इस रेवड़ी संस्कृति पर गंभीरता से चिंतन करने का वक्त आ गया है।
इस प्रकार से राजनीकि दल सरकार के खर्चे पर मतदाताओं को मुफ्त उपहार दे रहे हैं। यानी लोगों को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए एक प्रकार से रिश्वत दे रहे हैं। ऐसा करना राज्यों की आर्थिक स्थिति के लिहाज से भी उचित नहीं है। मतदाताओं को मुफ्त में सुविधाएं या उपहार देने से अंततः सरकारी खजाने पर असर पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि कोई भी मुफ्त वितरण वास्तव में सभी लोगों पर असर डालता है। ऐसे में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव नहीं हो पाते। अपनी कमाई से ज्यादा खर्च करना उनके लिए घातक साबित होगा।
श्रीलंका इसका उदाहरण है। उसके आर्थिक पतन का कारण वहां के राजनीतिक दलों द्वारा लोगों को दिए गए मुफ्त उपहार हैं। कोई आय न होने के बाद भी मुफ्त योजनाओं की घोषणा करना देश के आर्थिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं है। आमदनी की कोई ठोस योजना न होने के बाद भी राजनीतिक दल लोकलुभावन घोषणाएं कर जनता को छलने का कार्य कर रहे हैं। किसी वर्ग विशेष को मुफ्त की योजनाएं देकर जनता के विशेष वर्ग पर टैक्स का भार डाला जा रहा है।
इसलिए देश के राजनीतिक दलों को इसे एक गलत परंपरा समझकर रोक देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग को भी राजनीतिक दलों को इस तरह की घोषणाएं करने से रोकने पर विचार करना चाहिए। चुनाव प्रचार के दौरान वादे करते हुए राजनीतिक दलों द्वारा केवल राजनीतिक पहलू पर विचार करना बुद्धिमानी नहीं है, देश की आर्थिक स्थिति को भी ध्यान में रखना जरूरी है, क्योंकि बजटीय आवंटन और संसाधन सीमित हैं।
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हैं)
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