बाल साहित्य की बढ़ती उपेक्षा…
बाल साहित्य की बढ़ती उपेक्षा…
-कृष्ण कुमार मिश्र ”अचूक-
अक्सर लोगों को कहते सुना है कि बाल साहित्य भी कोई साहित्य है परंतु हमारी समझ में ऐसा कहते वही लोग हैं जिन्हें साहित्यिक क्षेत्र में कोई ज्ञान नहीं होता। ऐसा कहने वाले जरा ध्यान से सोचे कि वह इतने बड़े साहित्यकार क्या बिना बाल साहित्य के पढ़े ही बन गये। साहित्य की प्रथम सीढ़ी बाल साहित्य ही है। यह कहना अनुचित न होगा कि जब उन्होंने प्रथम बार लेखनी पकड़ी होगी तो क्या सीधे गीत, गजल, कहानी, उपन्यास लिखने लगे। प्रथम तो उन्हें अ से अनार, आ से आम ही लिखना पड़ा होगा जो पूर्ण रूप से बाल साहित्य है। मानता हूं कि हाथ का अंगूठा एक महान स्तंभ होता है। बगैर उसके सहारा दिए चारों उंगली कुछ करने में समर्थ नहीं होगी। उसी प्रकार बगैर उंगलियों की सहायता के अकेला अंगूठा कुछ करने में सक्षम नहीं हो सकता है। उसी प्रकार बिना बाल साहित्य के अपनाये कोई साहित्य नहीं लिखा जा सकता।
बाल साहित्य आदिकाल से लिखा जा रहा है। उसके रूप भले ही अलग-अलग हों। गोस्वामी तुलसीदास ने भी अपनी पावन लेखनी द्वारा कितना अच्छा लिखा है कि – ठुमुकि चलत रामचन्द्र बाजति पैंजनियां। वहीं महान कवि सूरदास जी ने भी अपनी पवित्र वाणी में बाल साहित्य झलकाया है। मैया कबहिं बढ़ेगी-चोटी।
हम बाल साहित्य नकारकर कोई भी साहित्य लिखने में सक्षम नहीं हो सकते। जरूरत है अच्छे बाल साहित्य की। जिससे हमारी भावी पीढ़ी को अच्छा ज्ञान संस्कार मिल सके। जब देश का बच्चा अच्छा संस्कारित होकर जागेगा तभी देश जागेगा। तभी हमारा राष्ट्र हिमालय की ऊंचाईयों पर पहुंचने में सक्षम होगा। बच्चे देश की धरोहर हैं परंतु हैं कच्ची मिट्टी। अब यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि उस गीली मिट्टी से किस प्रकार की मूर्ति बनाना पसंद करते हैं। बच्चा एक दर्पण है।
दर्पण के सामने जैसी आकृति आप पैदा करेंगे वहीं प्रतिबिम्ब आपको देखने को मिलेगा। इसलिए उसके सामने महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस आदि की ही आकृति पेश करें फिल्म सितारों की नहीं। बाल साहित्य बहुत अच्छे-अच्छे साहित्यकारों द्वारा लिखा जा चुका है और लिखा जा रहा है। आवश्यकता है उसके प्रचार और प्रसार की। सत्यता तो यह है कि जिनके लिए साहित्य लिखा गया और लिखा जा रहा है वह इन तक पहुंचता नहीं। कारण एक तो महंगाई दूसरी अभिभावकों की उदासीनता। पत्रिकायें इतनी महंगी है कि बच्चा आसानी से खरीद नहीं सकता। अभिभावक भी चाकलेट, आइस्क्रीम में दिन भर में पच्चीस पचास रूपये खर्च कर देंगे परंतु एक पत्रिका बच्चे को लेकर नहीं देंगे। वैसे बाल साहित्य प्रसार-प्रचार हेतु अनेक पत्र-पत्रिकायें प्रयासरत हैं परंतु यहां पर कर्तव्य बनता है अभिभावकों का कि वह अपनी दैनिक फिजूल खर्ची में कटौती कर बच्चों को अच्छी पत्रिकायें खरीदकर पढऩे को दें।
कुछ पत्र-पत्रिकायें ऐसी भी हैं जिनमें ऐसी सामग्री प्रकाशित हो रही है जिससे बच्चों को कुछ लेना देना नही। यहां हमारे संपादक महानुभावों की उदासीनता झलकती नजर आती है। ऐसी-ऐसी रचनायें प्रकाशित कर रहे हैं जिनका कोई सिर पैर नहीं। इस प्रकार की रचनायें प्रकाशित करने से पत्रिका का तो स्तर गिरता ही है साथ ही बच्चों को भी कोई प्रेरणा स्त्रोत नहीं मिलता। मैं संपादक बंधुओं से अनुरोध करूंगा कि वे बच्चों को प्रेरणा से ओत-प्रोत रचनाओं को स्थान दें। साथ ही रचनाकारों से भी निवेदन करूंगा कि प्रेरणा देने वाली ही रचना रचने का प्रयास करें। आज का बच्चा कल का महान साहित्यकार बन सकता है। आज आम आदमी का कहना है कि आजकल के बच्चे मां-बाप की सेवा नहीं करते। जरा गहरी नजर से देखें इसमें गलती किसकी है। जब आपने बच्चे के अंदर मां-बाप की सेवा करने के संस्कार भरे ही नहीं फिर आप मां बाप की सेवा की अपेक्षा क्यों करते हैं।
पहले आप बच्चे के अंदर वह संस्कार भरने का प्रयास करें जिनकी आपको बच्चे से अपेक्षा है। हम करते तो यह है कि चाय-नाश्ता तैयार हुआ सभी घर के लोग पुत्र, पत्नी समेत आप नाश्ता करने लगे। मां-बाप की कोई चिंता नहीं, नाश्ता करने के बाद पुत्र से आप कहते हैं लो बेटा अपने दादा बाबा को भी चाय दे आओ कहीं पुत्र ने कह दिया कि नाश्ता भी तो दीजिए तो आप फौरन पुत्र को डांट देते हैं कहते हैं जितना कहा है उतना करो। फिर भी आप इसी पुत्र से अपेक्षा करते हैं कि वह बढ़े होने पर चाय के साथ नाश्ता भी आपको दे।
क्या यह संभव है? उसको चाय के साथ नाश्ता देने के संस्कार आपने भरे कहां? इसीलिए बच्चों ने जो कुछ आपसे सीखा है वही व्यवहार आपके वृद्घ होने पर आपके साथ होगा। हमारा समाज हमारा देश बच्चों पर ही निर्भर है। इसीलिए बच्चों को अच्छे संस्कारों से सुसज्जित कर समाज और देश के विकास में सहयोग प्रदान करें।
दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट