प्रेम भरी पाती…

प्रेम भरी पाती…

-जयंत साहा-

मुझे माफ करना
मैं सहेजकर नहीं रख पाया
तुम्हारे प्रेम भरी पातियों को
नौकरी दर नौकरी, शहर दर शहर
मकान बदलते.बदलते
मेरा सामान न जाने कहां.कहां बिखर गया
मैं कई हिस्सों में बंटा हुआ हूं इन दिनों
पहले जब फूल खिलते थे
तुम याद आ जाते थे अचानक ही
जब कहीं चांद निकलता था बादलों की ओट से
तुम्हारा खिलखिलाता चेहरा होता था मेरी जेहन में
जब कहीं नदी बहती थी
तुम्हारे पायलों की मीठी रुन.झुन गूंजने लगती थी
अंतर्मन में
मैं कभी चुप रहकर भी तुम्हें
महसूस कर लिया करता था
और आज चीख चीखकर
तुम्हें याद करने की कोशिश कर रहा हूं
मुझे माफ करना
मैं निकला था चंद पैसे से
तुम्हारे लिए सपने खरीदने
मैं निकला था शाम तलक
लौट आने का वादा करके
मगर कितनी शाम गुजर गई
बॉस की घुड़कियां सुनते.सुनते
मुझे माफ करना
मशीन के बीच रह रहकर
मेरा पुर्जा.पुर्जा भी हो गया यंत्रों की तरह
जो कभी तुम्हारी एक आवाज से
जाग जाया करता था
आजकल पांच.दस अलार्म के बिना
उसकी नींद नहीं टूटती
मुझे माफ करना
मैं हार्ड या साफ्ट कॉपी में
बॉस या आॅफिस की अननेसेसरी फाईलों की तरह
तुम्हारे हाथ से लिखी हुई प्रेम भरी पातियों को
सहेजकर नहीं रख पाया।

दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट

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