प्रकृति का प्रतिशोध…

प्रकृति का प्रतिशोध…

— एक चेतावनी गीत

मत छेड़ प्रकृति को मानव!
यह मौन नहीं, ज्वाला है।
जिसको तू निर्बल समझे,
वो अग्नि-कणों की माला है।

बिजली बन कर टूटेगी,
जो तूने हरियाली छीनी,
आँधी बनकर फट पड़ेगी,
जो नदियों की गरिमा छीनी।

हिमगिरि के हिम पिघलेंगे,
समुद्र जब बाँध तोड़ देगा,
तू साधन की आस करेगा,
वह साधना ख़ुद छोड़ देगा।

तेरे कारखानों की साँसें,
मेरे वनों को खा गईं,
तेरे लोभ की लहरों में,
गंगा भी घुट-घुट बह गई।

जिस धरती पर खेला बचपन,
जिस नभ में उड़ते थे खग,
उसको ही तूने गंदा कर,
अब माँ से कर बैठा युद्ध!

रूका था तू लॉकडाउन में,
जब कुदरत हँस दी थी तन से,
फूलों में फिर रंग जगे थे,
बिजली चमकी थी मन से।

पर तू न सुधरता, मानव!
तेरा पाप बड़ा है भारी,
तू धर्म करे विज्ञान से,
पर नैतिकता तेरी हारी।

चेतावनी यह अंतिम है,
फिर रुख मेरा परिवर्तन है,
मैं क्षमा न करूँगी, जब-जब
तेरा लोभ हो निर्धारण है।

अरे! धरा की कोख जलाकर,
क्या तुम स्वर्ग बनाओगे?
जब श्वासों में जहर घुला हो,
किस जीवन को बचाओगे?

हवा रुदन कर कहती है,
“मुझे मत और प्रदूषित कर,
मैं जीवन हूँ, मृत्यु नहीं,
मुझको विष से मत विचलित कर!”

बबूल बोया है तूने,
आम कहाँ से पाएगा?
प्रकृति अगर रूठ गई तो,
कोई और नहीं बचाएगा।

ओ मनुज! विकास के नाम पर,
जो विनाश तू कर आया,
वह काल स्वयं बनकर आएगा,
तेरा अंत अब लाया।

तब जागो, अब भी समय है!
हर वृक्ष बने फिर मित्र तुम्हारा।
धरती को माँ कह कर जी लो,
वरना छिनेगा हक़ तुम्हारा!

— डॉ सत्यवान सौरभ

दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट

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