पुस्तक समीक्षा : एक अनछुआ एवं खुरदरा यथार्थ,..

पुस्तक समीक्षा : एक अनछुआ एवं खुरदरा यथार्थ,..

जम्मू-कश्मीर के प्रसिद्ध विशेषज्ञ प्रो. कुलदीप चंद अग्निहोत्री की नई पुस्तक ‘कश्मीर का रिसता घाव : एटीएम बनाम डीएम का संघर्ष’ पाठकों को एक ऐसे खुरदरे यथार्थ से परिचित कराती है, जो एक हद तक अनछुआ भी है। लेखक ने इस पुस्तक में भारतीय मुस्लिमों के यथार्थ को नयी संकल्पनाओं और उपकरणों के माध्यम से समझने की कोशिश की है। भारतीय मुसलमानों को मोटे तौर पर दो वर्गों में विभक्त कर मुसलमानों की आंतरिक दुनिया में झांकने की कोशिश की है। वह विदेशी नस्ल के मुसलमानों को एटीएम (अरब, तुर्क, मुगल) कहते हैं और भारतीय मूल के मुसलमानों को डीएम (देशी मुसलमान) के नाम से संबोधित करते हैं। लेखक का मानना है कि एटीएम को मुसलमानों का प्रतिनिधि मानने से राजनीतिक और अकादमिक स्तर पर मुसलमानों की वास्तविक स्थिति देश के सामने नहीं आ पाई है। इसके कारण सांप्रदायिकता के वास्तविक कारणों को समझने में प्राय: भारतीय विफल हो जाते हैं और भारतीय मुसलमानों की पहचान भी उनकी जड़ों से कट जाती है। लेखक इसको स्पष्ट करता हुआ कहता है कि जब भी भारत में मुसलमानों का अध्ययन किया जाता है तो एटीएम बनाम डीएम को जोडक़र भारतीय मुसलमान कह दिया जाता है।

इतना ही नहीं, इस प्रकार के अध्ययनों में केस स्टडी के लिए एटीएम को ही लिया जाता है, लेकिन उसके निष्कर्षों से डीएम या देसी मुसलमानों को शिकार बनाया जाता है। इस प्रकार देसी मुसलमान एटीएम के नीचे दब जाता है (पृष्ठ-36)। उनका मानना है कि जम्मू-कश्मीर का प्रश्न हिंदू-मुस्लिम से अधिक एटीएम बनाम डीएम का प्रश्न है। यदि इस संघर्ष के कारणों और उपकरणों की ठीक ढंग से पहचान कर ली जाए तो जम्मू-कश्मीर के प्रश्न के समाधान में तो सहयोग मिलेगा ही, सम्पूर्ण भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या से निपटने में भी मदद मिलेगी। इस पुस्तक में मुस्लिम समुदाय के आंतरिक टकरावों का विस्तृत विश्लेषण किया गया है। लेखक की मान्यता है कि टकरावों का प्रमुख कारण मतांतरित मुसलमानों का अपनी मूल संस्कृति के प्रति आकर्षण है। एटीएम समूह का पूरा प्रयास देशज मुसलमानों को उनकी संस्कृति से काटना है। पुस्तक में इस प्रक्रिया और मानसिकता को सैयदीकरण कहा है। दूसरी तरफ लगातार दबावों, जलालतों और कुंठाओं को सहते हुए भी देशज मुसलमान अपनी परम्परागत पहचान को अब तक अपने साथ बनाए हुए है। लेखक का मानना है कि पिछले कुछ वर्षों में देशज मुसलमानों में अपनी पहचान को लेकर आकर्षण बढ़ा है। यह हवा पिछले कुछ सालों से ही बह निकली है। सैयदों की छह सौ सालों की मेहनत में जलजले आने लगे हैं। देसी मुसलमान अपने पूर्वजों की खोज में निकल पड़ा है (पृष्ठ-254)। लेखक नवीन परिस्थितियों से उभर रहे समीकरणों को लेकर आशान्वित है और यह मानते हैं कि देशज मुसलमान का अपनी पहचान और अधिकारों को लेकर बढ़ता आग्रह स्वस्थ भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण है। जम्मू-कश्मीर के संदर्भों में वह देशी मुसलमानों की मजबूत होती आवाज को और भी अधिक जरूरी मानते हैं। मजहब की गोलियां खिला-खिलाकर बेहोश की गई जातियां अंगड़ाई लेने लगीं। उनकी यह अंगड़ाई ही सैयदों के वर्चस्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनती जा रही है। यही कारण है कि वे 370 की लाश को रो-रोकर घर में संभालने का हठ किए हुए हैं और सुपुर्द-ए-खाक करने में आनाकानी कर रही हैं (पृष्ठ -234)। भारतीय मुस्लिम समाज और उसके अंतरद्वंद्व को समझने के लिए यह एक अनिवार्य पुस्तक है। सामाजिक वैमनस्य और तुष्टिकरण के मूल कारणों को समझने के लिए भी यह आवश्यक है।

पुस्तक का नाम : कश्मीर का रिसता घाव (एटीएम बनाम डीएम का संघर्ष)
लेखक : प्रो. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
मूल्य : 400 रुपए

दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट

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