कहानी : उनका आशीर्वाद…
कहानी : उनका आशीर्वाद…
बारिश रूकने का नाम नहीं ले रही थी…..। दो दिन से लगातार मूसलाधार बारिश हो रही थी….। मैं बस स्टैंड में गांव जाने वाली अंतिम बस की प्रतीक्षा कर रहा था…..। ऑर्डिनेंस फैक्टरी से अप्रेंटिस की प्रारंभिक परीक्षा के लिए बुलावा आया था और मुझे गांव में रहने वाले एक रिश्तेदार के साथ जाना था….। किसी तरह बस आयी और मैं उसमें बैठ गया़…..।
गांव से खबर आयी थी कि बब्बा की तबीयत खराब है…..। पिताजी ऑफिस के काम कारण गांव जा नहीं पाये थे……। नदी- नाले उफान पर थे…..। जिला मुख्यालय से साठ-सत्तर किलोमीटर की दूरी पर घने जंगलों के बीच मेरा पैतृक गांव स्थित है….। जिन रिश्तेदार के साथ मुझे जाना था उनका गांव मेरे गांव से पंद्रह किलोमीटर पहले पड़ता है…..।
रिश्तेदार के गांव पहुँचकर मालूम पड़ा कि बब्बा की तबीयत बारिश के कारण और बिगड़ गयी है और मैंने उस मूसलाधार बारिश में गांव जाने का निश्चय कर लिया……। बस में बैठा तो पता चला कि वह बस गांव से तीन किलोमीटर पहले तहसील मुख्यालय तक जायेगी, क्योंकि तहसील मुख्यालय और मेरे गांव के बीच सात बगैर पुल-पुलिया के नाले पड़ते हैं, जो उस समय उफान पर थे…….। खैर फिर भी मैंने गांव जाने का निर्णय नहीं बदला……। तहसील मुख्यालय पर उतर मैं ये सोच रहा था कि क्या करूँ कि तभी मोटरसाईकिल पर गांव के ठाकुर साहब अपनी बिटिया को सप्लीमेंट्री की परीक्षा दिला लौटते हुए मुझे मिल गये….। अंधेरा घिरने वाला था…..। ठाकुर साहब ने बताया कि दो दिन से बब्बा को फुलनी चढ़ी हुयी है और उन्हें गांव से शहर ले जाकर किसी अच्छे डॉक्टर से इलाज कराना ही अच्छा होगा…..।
तहसील मुख्यालय से हम तीनों मोटरसाईकिल से चल पड़े थे़…..। छः छोटे नाले किसी तरह पार करने के बाद सातवें नाले में कमर से ऊपर पानी होने के कारण मोटरसाईकिल में पानी भर गया था…..। मोटरसाईकिल स्टार्ट नहीं हुयी और हम पैदल ही गांव की ओर चल दिये थे…..। मेरे कपड़े तो पहले ही गीले हो गये थे, नाला पार करते-करते जूतों में भी कीचड़ और पानी भर गया था….। मुझे गांव पहुंचने की जल्दी थी, सो मैं जूते भारी होने के बावजूद तेज कदमों से गांव की ओर बढ़ने लगा था…..। गांव का कच्चा रास्ता कीचड़ कांदो से भरा हुआ था…..। एक-एक कदम चलना दूभर था…..।
गांव का पुश्तैनी कच्चा घर तो पिछली बारिश में ही ढह गया था….। बब्बा, बउ और छोटे चाचा, संझले चाचा के घर में रह रहे थे, जो दूर शहर में बस गये थे…..। संझली चाची की कड़ी चिट्ठियां घर खाली करने के लिए आती रहती थीं ताकि वे उस घर को बेच सकें……। घर पहुँचा तो बब्बा की हालत देखकर मुझे रोना आ गया, उनका शरीर बुरी तरह फूला हुआ था……। बउ ने बताया कि चार-पांच दिनों से बुरी तरह फुलनी चढ़ी हुयी है….। गांव के डॉक्टर की दवाईयॉं बेअसर हो रही हैं……।
मैं उनके पैरों के पास बैठ गया और धीरे-धीरे उनके पैर दबाने लगा था…..। मेरे हाथों का स्पर्श पा उन्होंने आंखें खोली थी और बुदबुदाते हुए पूछा था-”बड़ो बब्बू नहीं आओ काय?” मेरे न में जबाव को सुनकर उन्होंने आंखें मूंद लीं….। मैं धीरे-धीरे उनके पैर दबाता रहा….। बउ उनकी तबीयत और इलाज के बारे विस्तार से बताती रहीं…..। थोड़ी देर बाद उन्होंने ऑंखें खोली और जो कहा उसका मतलब मैं तब बिल्कुल भी नहीं समझ पाया था….। उन्होंने कहा-”बड़ो बब्बू तो नहीं आओ आय, तैं आये हे तो तैं ही ले ले मोर आसिरवाद” फिर उनने आंखें बंद कर ली थीं….। मैं कुछ देर यूं ही उनके पैर दबाता रहा….। जब परिवार के बड़े पिताजी जो कि डॉक्टरी भी करते थे, खाना खाने के लिए बुलाने आये तब मैं वहां से उठा था….।
खाना खाकर काफी देर तक डॉक्टर बड़े पिताजी से बब्बा के इलाज के बारे में बातें होती रहीं फिर सब सोने चले गये…..। सुबह छोटे चाचा ने आकर उठाया था और कहा चलो और मैं बगैर कुछ बोले उनके पीछे चल दिया था…..। घर के बाहर गांव वालों का हुजूम लगा हुआ देखकर मन विचलित हो गया था…..। घर पहुँचा तो बब्बा को जमीन पर लिटा दिया गया था और पंडितजी गीता पाठ कर रहे थे……..। बउ और गांव की औरतें जमीन में बैठीं सुबक रहीं थीं…..। मुझे काठ मार गया…..। छोटे चाचा ने बताया की रात किसी वक्त उनकी मृत्यु हो गयी थी….। मैं जड़ खड़ा था कि तभी पीछे से बड़े पिताजी और गांव वालों की आवाज आयी कि जो होना था हो चुका अब तुम अपनी परीक्षा मत छोड़ो और मैं उनकी बात मान परीक्षा देने चल दिया था…..। बस में बैठे-बैठे जहन सांय-सांय कर रहा था और बब्बा के कहे शब्द गूँज रहे थे-”बड़ो बब्बू तो नहीं आओ आय, तैं आये हे तो तैं ही ले ले मोर आसिरवाद”…….।
दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट