आरजू (कहानी)
आरजू (कहानी)
-बानो कुदसिया-

इंसानी मन में उठने वाले भावों की कोई थाह नहीं होती है। कब किसके लिए कैसे विचार आ जाएं, कुछ पता नहीं। लेकिन कई बार ऐसे भाव और विचार जन्म ले लेते हैं, जिसके बारे में हम किसी से कुछ नहीं कह सकते लेकिन उनके बोझ तले हम लंबे समय तक दबे रहते हैं। मन के ऐसे ही उलझे हुए भावों को सामने लाती एक मार्मिक कहानी।
गाड़ी धक्का खाकर रुकी, लेकिन अगर यों न भी रुकती तो भी मैं जाग जाती, क्योंकि बड़ी देर से मुझे लग रहा था कि कोई कनखजूरा मेरी गर्दन पर हौले-हौले रेंग रहा है। बाहर फीकी वांदनी में एक काला कुरूप इंजन शंटिंग कर रहा है। हमारे डिब्बे में एक सीट पर अम्मी, एक पर बड़ी आपा और एक पर जेनब आपा सो रही हैं। पंखे छत से घूं-घूं करते इधर-उधर चेहरे घुमा रहे हैं। वो पत्रिकाएं भी सीट से खिसक कर फर्श पर फैल गई हैं, जिनके सहारे यह सफर कट जाने की उम्मीद थी… अगर मुझे बाजी से आंखें मिलाने की आशंका न होती, तो मैं भी जेनब आपा, बड़ी आपा और अम्मी की तरह रोती-रोती ही सो जाती।
लेकिन आज मुझे बाजी डरा रही हैं। बहुत अरसा पहले एक दिन उन्होंने कुछ कहे बिना मुझे डराया था। अम्मी ने अलमारी में उनके लिए मिठाई रख कर ताला लगाया था। फिर वह चाबियां तख्त पर रख कर नमाज पढ़ने लगी थीं, तो मैंने चाबियों का गुच्छा उठा लिया और दबे पांव अलमारी तक जा पहुंची। गरमियों की खामोश दोपहर थी। मेरे और अम्मी के सिवाय सब सो रहे थे, लेकिन इसके बावजूद मैं डरते-डरते अलमारी के ताले को चाबी से खोल रही थी। बड़ी हिम्मत के बाद मैंने प्लेट अलमारी से निकाली। उसी वक्त बाजी आ र्गइं। मैंने प्लेट में से कुछ भी न उठाया था, लेकिन बाजी ने निगाहों ही निगाहों में मुझे सदा-सदा के लिए चोर बना दिया।
यह बाजी का मुकद्दर है कि उन्हें सदा से अच्छी चीजें मिलती रही हैं। अम्मी मिठाई का हिस्सा रखेंगी, तो बाजी के लिए ज्यादा ही रहता। घर पर कपड़ा आएगा, तो बाजी अपनी पसंद का उठा लेंगी। और तो और दूल्हा मिलने में भी बाजी का मुकद्दर अपनी बड़ी बहनों पर बाजी मार ले गया। बड़ी आपा और जेनब आपा के दूल्हे तो ऐसे ही थे, जैसे सामान्य आदमी होते हैं, लेकिन बाजी का दूल्हा…।
उस दिन मैंने आंगन धोया था और हाथों में खाली बाल्टी थी। सिर उठा कर मैंने देखा था। एयरफोर्स की वर्दी पहने सुनहरी मूंछों वाला बाबा सामने खड़ा था। लम्हे भर के लिए मेरे दिल का धड़कना रुक गया। जैसे सपने में से उठ किसी ने थप्पड़ मारा हो। फिर सुनहरी मूंछों वाले बाबे ने हंसकर मुझसे बाल्टी ले ली और पूछा, कहां रखना है इसे? जेनब आपा और बड़ी आपा के शौहरों से कितनी अलग बात थी। उन दोनों के सामने सारे घर की चारपाइयां अंदर-बाहर करते सांस फूल जाती, लेकिन वे टांग पर टांग धरे सिगरेटें पीते रहते। जब विलायती बाबू तांगे से अपना सामान उतरवा रहा था, तो अंदर-बाहर एक तूफन सा आ गया। सिवाय बाजी के सभी कुछ न कुछ कर रहे थे और जिस बेपरवाही से वह बैठी कशीदा काढ़ रही थीं, इस से साफ जाहिर था कि वास्तव में बाबे का सबसे अधिक संबंध उन्हीं से है। पता नहीं, क्यों उसी रोज मुझे बाजी से सख्त चिढ़ पैदा हो गई। बाजी की सदा से आदत है कि खामख्वाह चिढ़ाना शुरू कर देती हैं… बस छोटी सी बात में ऐसा उलझाव पैदा कर देती हैं कि रोने को जी चाहता है…!
हम चार बहनें बैठी नए बाबे के बारे में बातें कर रही थीं। जेनब आपा बोलीं, वैसे यूसुफ का सब कुछ अच्छा है। एक जरा मुझे उसकी आंखें नापसंद हैं। मुझे पता नहीं, उनकी बात सुन कर क्यों गुस्सा आ गया। झट बोली, क्यों उनकी आंखों का रंग तो इतना खूबसूरत है, जैसे नीले-नीले कंचे हों। बाजी ने हंसकर पूछा, और तुम्हें नीले कंचे पसंद हैं क्या?
मेरी नाक पर पसीना आ गया, मैं झल्ला कर बोली, हां… क्यों नहीं?
अब बाजी को चिढ़ाने की सूझी। अपने अनोखे अंदाज में होंठ उठा कर मेरे कंधे पकड़ बार-बार दुहराती र्गइं, क्यों तुम्हारा करवा दें ब्याह यूसुफ से? बोलो तहमीना… बोल।
इससे पहले भी कई बार बाजी ने मुझे चिढ़ाया था, लेकिन मैं रोई नही थी। उस दिन मैंने कंधे झटक दिए और रोने लगी। बड़ी आपा ने गले से लगा कर कहा, अरे, रोने लगीं। यह तो पागल है। इसके कहने से कोई तेरी शादी थोड़ी हो चली है, यूसुफ से।
फिर वह बाजी को डांटते हुए बोलीं, खुशी से लड्डू अपने दिल में फूट रहे है, रुला इस बेचारी को रही है। इस उम्र में ऐसे मजाक नहीं करते। फिर सब मामला रफा-दफा हो गया, लेकिन रात जब मैं सोने लगी, तो एक बार फिर आंसू मेरी आंखों में तैरने लगे और मैं कहने लगी, अल्लाह मियां, बाजी मर ही जाए। मर ही जाए…।
बाजी मेरी बद-दुआ से मर तो न सकीं। हां, हमारा घर छोड़कर जरूर चली र्गइं। यूसुफ भाई के साथ कार में बिठा कर हम सब लौटे, तो आते ही मैंने दिन-रात बजाने वाले ढोलक को पैर मार कर फाड़ दिया और बिस्तर पर औंधी लेट कर रोने लगी।
मेरा मन हर समय किसी न किसी में बैठा बाजी की कमी महसूस करता हुआ उदास हो रहा था, लेकिन बाजी की गैर-मौजूद के साथ-एक अजीब तरह का गुस्सा भी आ रहा था। सारी शाम उन्होंने मुझे भगा-कर पैर छलनी कर दिए थे। फिर भी जो कोई था उनकी तारीफ कर रहा था।
फिर जब बाजी अपने छोटे से बच्चे को लेकर हमारे यर्हां आइं, तो उनका मुंह देखकर सबके मुंह खुले के खुले रह गए। सुनहरे बाल, सफेद रंगत और कंचों जैसी नीली-नीली आंखें, लेकिन मैंने देखा कि यूसुफ भाई में पहले से बहुत फर्क आ चुका था। नाक के दोनों तरफ गहरी लकीरें पड़ चुकी थीं और वे बूढ़े नजर आते थे। बाजी सारा-सारा दिन अपने बच्चे को गोद में लिए खेलती रहती और मैं कनखियों से देखती कि यूसुफ भाई बेचैनी से प्रतीक्षा करते की कब बाजी को फुरसत हो और वह उनसे भी बात करें। ऐसे में मैं यूसुफ भाई के पास जा बैठती और उनसे बातें करने लगती। वह बातों में हवाई जहाजों की ऊंची उड़ानों पर मुझे साथ ले जाते। ऐसे भयानक हादसे बयान करते कि दिल हवाई जहाज के पंखों की तरह चलने लगता। फिर उनकी नीली आंखों में मौत से खेलने वाले पायलट जैसा भय आ जाता और वे अपने बच्चे से भी कम उम्र के नजर आते। मेरा जी चाहता कि उनके सुनहरी बालों में अंगुलियों को डुबा कर कहूं, मौत से क्यों डरते हो? वह तो अपने पलंग पर भी आ जाती है।
यों तो रोज ही कुछ न कुछ होता रहता था, लेकिन उस दिन यूसुफ भाई गुसलखाने में घुसे ही थे कि मुझे एहसास हुआ कि अंदर तौलिया नहीं है और अभी वे नहाकर तौलिए के लिए पुकारेंगे। थोड़ी देर के बाद उन्होंने बाजी को पुकारना शुरू कर दिया। बाजी अंदर पलंग पर बैठी नन्हे को पावडर लगा रही थीं। उन्होंने सुनी-अनसुनी कर दी, तो मैं गुसलखाने के किवाड़ के पास जा कर बोली, कहिए, भाई जान?
भई जरा तौलिया पकड़ाना तहमीना। मैं तौलिया लेकर गई, तो खिड़की का आधा पट खोले, सिर निकाले खड़े थे। धुले-धुलाए चेहरे पर शहद की बूंदों की तरह पानी के कतरे लुढ़क रहे थे और नीली कंचे जैसी आंखें बिल्कुल हीरों जैसी लग रही थीं। फिर वे ऊंचे-ऊंचे कहने लगे, तहमीना, शादी के बाद अपने शौहर का ख्याल जरूर रखना अच्छा…। ऐसी कई नन्ही-नन्ही बातें बड़े-बड़े नागों की तरह मेरे मस्तिष्क में उभर रही थीं, जिन पर एक काला कुरूप इंजन शंटिंग कर रहा है और जिसे देखकर यों लगता है, जैसे हमारी गाड़ी चल रही हो। उस कुरूप इंजन की तरह एक विचार मेरे दिल में आगे-पीछे चक्कर लगा रहा था। अगर यह विचार कुछ क्षण के लिए मुझे छोड़ देता, तो मैं भी बड़ी आपा, जेनब आपा और अम्मी की तरह थाड़ी देर के लिए सो जाती।
और सोना तो उस रात भी संभव न था, जब यूसुफ भाई के सिर में बला का दर्द उठा था। पहले तो बाजी कुछ देर बैठी सिर दबाती रहीं। फिर जब नन्हा रोने लगा था, तो वह उसे चुप कराने के लिए उठीं और उसे थपकाते-थपकाते खुद भी सो र्गइं। यूसुफ भाई करवटें बदलते हुए कराहते रहे। बड़ी आपा ने पेनकिलर खिलाई मगर फर्क न पड़ा। अम्मी ने पानी गर्म कर पिलाया। दर्द वैसा ही रहा। फिर मैं उठकर उनके सिरहाने जा बैठी और उनका सिर दबाने लगी। धीरे-धीरे यूसुफ भाई सो गए। उनकी सांस मेरे घुटने को छूने लगी। उस रात मैंने कितनी ही अनजानी राहों पर डरते-डरते कदम धरने के सपने देखे और शायद उन्हीं सपनों का नतीजा था कि मैं सिर दबाते-दबाते ऊंघ गई। जब बाजी ने मुझे जगाया, तो मेरे हाथ यूसुफ भाई के बालों में थे और दुपट्टा उनके चेहरे पर पड़ा था। पता नहीं, क्यों उस वक्त भी मुझे वह दिन याद आ गया, जब मैने तख्त से चाबियां उठा कर अलमारी से मिठाई निकाली थी।
अगली सुबह ही बाजी अपने घर जाने का प्रोग्राम न बना लेतीं, तो शायद इतनी तीव्र नफरत मेरे दिल में कभी पैदा न होती, लेकिन इधर बाजी और यूसुफ भाई रवाना हुए और उधर मैं गम और गुस्से से रोने लगी। जब मेरा बस न चलता, तो मैं तकिए में मुंह दे कर कहती, अल्लाह मियां बाजी तो मर ही जाए…। मुझे पूरा यकीन है कि मेरी बद-दूआ ने बाजी की जान ले ली। वह इंफ्लुएंजा/न्यूमोनिया से नहीं, अपनी बहन की बद-दूआ से मर गई और अब जब वह मर गई हैं तो मैं उसे कैसे यकीन दिलाऊं कि वह बद-दूआ मैंने उन्हें जी से नहीं दी थी। स्टेशन की बेरौनक बत्तियों की तरह बाजी के गले में बासी मुरझाए फूल होंगे और डराए-धमकाए बिना मुझे मिल कर पूछेंगी, बोलो, अब तो खुश हो न। अब तो खुश हो न? गाड़ी धक्का खाकर चलने लगी है। कुरूप इंजन हम से दूर नागों जैसी लाइनों पर शंटिंग करता हुआ पीछे रह गया है, लेकिन गुनाह के एहसास का बहुत से बाहों वाला कनखजूरा हौले-हौले मेरी गर्दन पर रेंग रहा है। अभी वह मेरे मुंह पर आ जाएगा और मेरी आंखों में सुइयों जैसे पांव गाड़ देगा।
दीदार ए हिन्द की रीपोर्ट