स्वामी का जाना

स्वामी का जाना

उत्तर प्रदेश सरकार के श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने मंगलवार को योगी मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर और भाजपा छोडऩे का एलान करके बड़ी सियासी हलचल मचा दी। अपने इस्तीफे के बाद जिस तरह से उन्होंने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव से मुलाकात की उससे कयास यही लगे कि उन्होंने सपा ज्वाइन कर ली है। मगर अब उन्होंने कहा है कि वे 14 जनवरी को सपा में शामिल होंगे। मौर्य ने दावा किया है कि उनके साथ करीब 15 विधायक और भी जा सकते हैं। अब तक जा रहा था कि भाजपा डैमेज कंट्रोल और उन्हें मनाने में लगी है। मगर अब आलाकमान ने इस संभावना को खारिज कर इस टूट को टालने में जुट गई है तो वहीं सपा को भी बड़ा झटका देने की तैयारी है। उत्तर प्रदेश में चुनाव से ठीक

पहले पालाबदल शुरू हो चुका है। विधायकों से लेकर तमाम नेता एक महीने से पार्टियां बदलने में जुटे हैं। 14 जनवरी यानी मकर संक्रांति के मौके पर या फिर उसके बाद किसी भी दिन भाजपा सपा के कुछ विधायकों को पार्टी में शामिल करा सकती है। सियासी हलकों में इन नामों की जोर-शोर से चर्चा भी हो रही है। इनमें से कई तो ब्राह्मण नेता हैं, जिनकी मदद से अखिलेश यादव बिरादरी को लुभाने की कोशिश में जुटे रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो यह सपा के खिलाफ भाजपा की काउंटर स्ट्रेटेजी होगी, जिसके जरिए वह स्वामी प्रसाद एवं अन्य नेताओं की टूट की काट करेगी। खासतौर पर ब्राह्मण नेताओं को पार्टी में शामिल कराकर भाजपा यह संदेश देना चाहेगी कि बिरादरी की नाराजगी का जो नैरेटिव उसके खिलाफ चलाया जा रहा है, वह सही नहीं है। इनमें से एक नेता के तौर पर मनोज पांडेय का भी नाम लिया जा रहा है, जो रायबरेली की ऊंचाहार सीट से विधायक हैं। कहा यह भी जा रहा है कि इस सीट से बेटे को टिकट दिलाने की मांग पूरी न होने पर ही स्वामी प्रसाद ने भाजपा को

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क्या होगा अगला ट्रंप कार्ड

झटका दिया है। दरअसल ऊंचाहार सीट से स्वामी के बेटे उत्कृष्ट मौर्य पहले भी चुनाव लड़ चुके हैं और सपा के मनोज पांडेय के मुकाबले हार गए थे। इस बार भाजपा किसी और नेता को उतारने की तैयारी में है। ऐसे में इस मांग के पूरी न होने पर स्वामी प्रसाद ने अलग होने का फैसला लिया। दरअसल भाजपा ने ऐलान किया है कि वह इस बार परिवारवाद को महत्व नहीं देगी। यही पॉलिसी स्वामी प्रसाद मौर्य की उम्मीदों पर भारी पड़ रही थी। स्वामी प्रसाद मौर्य का पार्टी छोडऩा कोई नई बात नहीं है। वह हर विधानसभा चुनाव से पहले अमूमन पुराने को छोड़कर नए दल में जाते रहे हैं। लेकिन भाजपा के लिए चिंता की बात यह है कि समाजवादी पार्टी स्वामी की टूट को पिछड़ों की एकता के तौर पर प्रचारित कर सकती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में यादव बिरादरी के बाद मौर्य समाज ऐसा दूसरा वर्ग है, जो ओबीसी तबके में बड़ी हिस्सेदारी रखता है। ऐसे में उनके भाजपा छोडऩे को पिछड़ा बनाम अगड़ा करने की कोशिश सपा की ओर से हो सकती है। यदि चुनाव का नैरेटिव ऐसा रहा तो भाजपा को मुश्किल होगी, जो जाति आधारित राजनीति की बजाय धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति में यकीन करती है। दरअसल इन सबके बीच एक बात

कॉमन है कि स्वामी प्रसाद मौर्य सूबे की राजनीति में बड़ा नाम माने जाते हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी बिरादरी के लिए लड़ते हुए स्वामी प्रसाद मौर्य ने 80 के दशक में अपने गृह जनपद प्रतापगढ़ छोड़कर रायबरेली को अपना राजनीतिक क्षेत्र माना जिसके बाद उन्होंने रायबरेली में ही अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत की। यही नहीं पहली बार विधायक भी वे रायबरेली की डलमऊ विधानसभा से 1996 में चुने गए. उसके बाद मायावती के मंत्रिमंडल से मंत्री बने, बहुजन समाज पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बने और बसपा में उनकी हैसियत नंबर दो की माने जाने लगी। फिर विधानसभा चुनाव 2007 में बसपा की हार हो गई। उस समय भी स्वामी प्रसाद मौर्य का कद कभी कम नहीं हुआ। मायावती सरकार में मंत्री बने। 2012 से लेकर 2017 तक विपक्ष के नेता के तौर पर वे सदन में सक्रिय रहे लेकिन 2017 विधानसभा चुनावों के ठीक पहले स्वामी प्रसाद मौर्य बसपा छोड़कर भारतीय जनता पार्टी के खेमे में चले गए। अब भाजपा से जाकर सपा की साइकिल पर बैठ गए हैं।

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किसान एकता संघ की एनपीसीएल के महाप्रबंधक से वार्ता

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