सोशल डिस्टेंसिंग शब्द का गलत हिंदी अनुवाद है ‘सामाजिक दूरी’ -प्रभात कुमार-
सोशल डिस्टेंसिंग शब्द का गलत हिंदी अनुवाद है ‘सामाजिक दूरी’ -प्रभात कुमार-
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महामारी से बचाव के लिए बनाए गए नियमों में ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ बनाए रखना, एक चालू मुहावरे की तरह प्रयोग किया जा रहा है। ऐसा लगता है जब यह शब्द नियमों के प्रारूप में शामिल किए गए तो जल्दबाजी में इसका अर्थ समझने का समय नहीं मिला। हमारे यहां यह शब्द विदेश से आई महामारी के नियमों में मिला सो बिना तकलीफ उठाए, अपना अहोभाग्य समझकर, हिंदी में इसका अक्षरशः अनुवाद ‘सामाजिक दूरी’ स्वीकृत कर लिया गया। कोरोना का पहला सामाजिक उदय हुआ फिर पुन ज़ोरदार उग्र उदय हुआ, उससे बचने के लिए दिए गए लाखों विज्ञापनों और बातचीत में भी सामाजिक दूरी बनाए रखने की संजीदा सलाह, भेंट की तरह दी गई और स्वीकार भी की गई। कहीं ऐसा लगता है कि परामर्श के अनुसार सामाजिक दूरी वास्तव में बढ़ती जा रही है। समाज के आभासी मंच पर तो दूरियां स्पष्ट बढ़ती ही दिखती हैं। फेसबुक की रिपोर्ट्स से सम्बन्धित ख़बरें बताती हैं कि महामारी आने के बाद नफरत, हिंसा व दबंगई तीन गुणा बढ़ चुकी थी। फेस टू फेस होना कम रहा इसलिए संचार तकनीक का फायदा उठाया जाना स्वाभाविक था।
व्यक्तिगत व्यवहारिक अवनति में इन दो शब्दों का सीधा हाथ नहीं लेकिन अभी तक विशाल स्तर पर यह विचार नहीं हुआ कि जो शब्द करोड़ों बार प्रयोग किए जा रहे हैं वे अव्यवहारिक हैं। क्या सामाजिक दूरी बनाए रखने की सलाह देकर अनुचित सलाह नहीं दी जा रही है। कोरोना कर्फ्यू के दौरान भी आम लोग सामान, सब्जी खरीदते हुए, बतियाते हुए एक दूसरे के पास खड़े हुए मिले तो प्रशासन ने दो गज की सामाजिक दूरी न बनाए रखने के लिए उनका चालान किया और जुर्माना भी वसूला। इस बहाने सरकार को करोड़ों रूपए की आमदनी भी हुई है। उन सन्दर्भों की दुर्गन्ध अभी बाकी है जिनमें महामारी के मौसम में प्रदेश के कुछ राजनेताओं को छोड़कर लगभग सभी ने अपनी सामाजिक, मानसिक, नैतिक दूरियों का दिमाग खोलकर प्रदर्शन किया। आम व्यक्ति बेचारा एक निढाल वोट की तरह होता है जिसे हर सरकार संभाल कर रखना चाहती है। इसलिए प्रशासन एक सीमा तक सख्ती बरतता है।
असल में हमने सामाजिक दूरी को बहुत इत्मिनान से पाला पोसा है। दशकों का समृद्ध इतिहास गवाह है कि हमने जात पात, धर्म, क्षेत्र, वैचारिक, आर्थिक और राजनीतिक मतभेद का इस्तेमाल कर सामाजिक दूरी तो पहले से ही बहुत बढ़ाई हुई है। इस दूरी को दिमाग में सामाजिक योजनाओं की तरह पकाया जाता है और फिर नापतौल कर व्यवहार में लाया जाता है। यह काम उतनी ईमानदारी से किया जाता है जितना
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चुनाव में जीतने के लिए प्रचार करना। सामाजिक दूरी को मानसिक या वैचारिक दूरी भी कह सकते हैं जिसे दो गज क्या, किसी भी माप में नहीं रख सकते। इसे तो अनुभव किया या कराया जा सकता है, जो हम पूरी शिद्दत से करते भी आए हैं। सामाजिक आयोजनों में हमारी संस्कृति और परम्परा की प्रतीक स्वादिष्ट धाम में सामाजिक दूरियों का खूब दर्शन होता है। क्या यह तारीफ़ के काबिल है कि हम लोक परम्परा के निमित खाना भी एक जगह बैठकर नहीं खिला सकते। खा लेंगे तो आशंका रहेगी कि बेचारा खाना शायद हजम ही न हो।
दुःख भरी हैरानी की बात यह है कि स्कूली विद्यार्थियों के साथ ऐसा अप्रत्याशित व्यवहार अध्यापक भी करते हैं। इस सामाजिक विसंगति की मरम्मत करने के लिए क़ानून की मदद ली तो जाती है लेकिन आज तक मरम्मत कितनी कारगर हुई इससे सब वाकिफ हैं। यह सब मानसिक दूरी की मिसाल है कि महामारी के कठिन अंतराल के दौरान इलाज पद्धतियों पर फालतू बहस होती रही लेकिन स्थायी रूप से उचित स्वास्थ्य संरचना गठित करने के बारे में संजीदगी से बात करने को कोई तैयार नहीं हुआ। निरंतर विकसित होती तकनीक को इतना ओढ़ने के बाद भी आपसी दूरियां कम नहीं हो पाईं बल्कि बढ़ती ही गईं। क्या मतभेद इतने गहरे, वैचारिक या व्यक्तिगत हैं कि उचित व्यवस्था का स्वस्थ विकास नहीं हो पाता। इंसान को सामाजिक पशु कहा गया है। रहस्यमयी वायरस ने खुद को बहुत समझदार मानने वाले इस ‘पशु’ को अच्छी तरह से बता दिया है कि कुदरत से प्यार का नाटक करने वाला यह अभिनेता, इंसान कहलवाने लायक नहीं है। अगर इसने मानवीय जीवन में सूझबूझ, इंसानियत व सामान्य समझदारी का सहज प्रयोग किया होता तो इतनी सामाजिक दूरियां बढ़ती ही नहीं। यहां यह सवाल दखल देता है कि अगर ऐसा होता तो फिर महारानी राजनीतिजी क्या करती।
वास्तव में, महामारी के संक्रमण से बचने के नियमों के अनुसार दो गज की ‘शारीरिक दूरी’ बनाए रखने की ज़रूरत है। यह अलग बात है कि छह फुट की दूरी बनाए रखना व्यवहारिक समस्या ही नहीं, बाजारों व कई क्षेत्रों के सार्वजनिक स्थानों पर कम जगह का उपलब्ध होना भी है। हमारी पुरानी आदतें भी इस संबंध में पूरी सहयोगी हैं। हमारे ज्यादातर सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक नायक भी दो गज की सामाजिक नहीं, शारीरिक दूरी बनाए रखने में असमर्थ हैं, स्वाभाविक है वे आम जनता के प्रेरणास्त्रोत भी बने हुए हैं। महामारी कमज़ोर पड़ने के बाद भी संक्रमण से बचने के लिए स्थिति अनुसार, ज़रूरी शारीरिक दूरी बनाए रखने का विज्ञापन और निरंतर व्यक्तिगत आग्रह किया जाना शुरू करें तो संभव है लोग उचित शब्दों का सही अर्थ लेते हुए ज्यादा प्रेरित हों। यह बार-बार कहा जा रहा है कि महामारी का खतरा अभी टला नहीं है और शारीरिक निकटता बरकरार है तो क्यूं न बाज़ार या भीड़ होने वाली संभावित जगहों पर आने वाले व्यक्तियों पर सेनिटाइज़र या अन्य उपयुक्त घोल का छिड़काव किया जाए ताकि दो गज दूरी की ज़रूरत ही न पड़े। क्योंकि यह हो नहीं पा रहा है और ऐसी स्थिति के मद्देनज़र तीसरी लहर आने की आशंका यहां वहां से झांकती दिख रही है। यह प्रशंसनीय है कि कुछ मीडिया संस्थान व सामाजिक संस्थाएं व व्यक्ति भी शारीरिक दूरी बनाए रखने के लिए ही आग्रह कर रहे हैं, वे भी हमारे मार्गदर्शक हो सकते हैं। आज हमें सामाजिक दूरी बनाए रखने की नहीं बल्कि सामाजिक व मानसिक दूरियां कम करने की ज्यादा ज़रूरत है। निश्चय ही सकारात्मक प्रयासों से हमें सफलता मिल सकती है और उम्मीद की जा सकती है कि कम होती सामाजिक दूरी के साथ-साथ दूसरी अनुचित दूरियां भी कम हो पाएंगी।
लिंक पर क्लिक कर पढ़िए ”दीदार ए हिन्द” की रिपोर्ट
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